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नवतत्त्वसंग्रहः ४. कुब्ज-हाथ, पग, मस्तक तो लक्षण सहित अने हृदय, पूठ, उदर, कोठा एह लक्षण हीन ते 'कुब्ज' संस्थान ।
५. वामन-जिहा हृदय, उदर, पूठ ए सर्व लक्षण सहित अने शेष सर्व अवयव लक्षण हीन ते 'वामन', कुब्ज से विपरीत ।
६. हुंड-जिहा सर्व अवयव लक्षण हीन ते 'हुंड' संस्थान कहीये । ___(२६) १४ बोलकी उत्पाद (उत्पात) भगवती (श० १, उ० २, सू०१ २५)।
असंयत भव्य द्रव्यदेव । चरणपरिणाम शुना मिथ्यादृष्टि भव्य वा अभव्य | जघन्य | उत्कृष्ट । द्रव्ये क्रियाना करणहार, निखिल समाचारी अनुष्ठान युक्त, द्रव्यलिंगधारी | भवनपति मे उपर ले प्रैवेयपिण समदृष्टिना अर्थ न करणा ते निखिल क्रिया केवल से
उपजे कमे २१मे देव अविराधितसंयम । प्रव्रज्या के काल से आरंभी अभग्नचारित्रपरिणाम प्रथम सर्वार्थसिद्ध में प्रमत्त गुणस्थान में अथवा चारित्र की घात नही करी।
देवलोके २६ विराधिक संयत । उपर ले से विपरीत अर्थ अने सुकुमालका जो दूजे | भवनपति में | प्रथम देवदेवलोके गई सो उत्तर गुण विराधि थी इस वास्ते अने इहां विशिष्टतर
लोक संयम विराधना की है।
श्रावक आराधिक । जिसने व्रत ग्रहण थूल से लेकर अखंड व्रत । प्रथम | १२ मे स्वर्गे पालक श्रावक
देवलोके विराधक श्रावक । उपरिले अर्थ से विपरीत अर्थ जानना ।
भवनपति में| जोतिषी मे तापस पड्यो हूये पत्रादि के भोगनेहारे बालतपस्वी
भवनपति में| जोतिषी मे असंज्ञी. मनोलब्धि रहित अकाम निर्जरावान्
भवनपति में | वाण व्यंतर में कंदर्पि. व्यवहार मे तो चारित्रवंत भ्रमूह वदन मुख नेत्र प्रमुख अंग | भवनपति में प्रथम देवमटकावीने औरांकू हसावे ते कंदर्पिक
लोके चरगपरिव्राजक. त्रिदंडी अथवा चरग-कछोटकाय, परिव्राजककपिल | भवनपति में | ब्रह्मलोके ५ मुनिना संतानीया ।
स्वर्गे किल्बिषिक. व्यवहारे तो चारित्रवान् पिण ज्ञानादि के अवर्ण बोले, | भवनपति में | छटे देवलोके जमालिवत् । तिर्यंच. गाय घोडा आदिकने पिण देशविरति जानना इति वृत्तौ । भवनपति में | ८ मे देवलोके
आजीविकामति. पाखंडिविशेष आजीविका निमित्त करणी करे, | भवनपति में | १२ में स्वर्गे गोशालाना शिष्यनी परें।'
आभियोगिक, मंत्र यंत्रे करी आगलेकू वश करे। विशेषार्थ वृत्तौ। भवनपति में | १२ में स्वर्गे स्वलिंगी दर्शनव्यापन्न. लिंग तो यतिका है, पिण सम्यक्त्व से भ्रष्ट है, | भवनपति में | २१ में देवनिह्नव इत्यर्थः ।
लोक १. "अह भंते ! असंजयभवियदव्वदेवाणं १ अविराहियसंजमाणं २ विराहियसंजमाणं ३ अविराहियसंजमा