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________________ हिंदी-भाव सहित ( जीवनकी अथिरता)। उपरि दिविजान् मध्ये कृत्त्वा नरान् विधिमन्त्रिणा, पतिरपि नृणां त्राता नैको हलध्यतमोऽन्तकः ॥७५॥ अर्थः-ईश्वरके सृष्टि-कार्य करनेमें मंत्रीका काम देनेबाला जो विधाता, उसने मनुष्योंको निर्बल समझकर अनेक प्रकारसे उनकी रक्षा करना चाहा। जहां मनुष्योंको रहना था उसके आस पास तो असंख्यातों द्वीप समुद्र, खाई कोटोंकी जगह तयार कराये, उनके भी आगे सबके बाहिर बीस बीस हजार योजन मोठे बातबलयोंके तीन कोट तयार कराये, और उनके भी आगे सर्व व्यापक आकाशको रकरवा । इतने कोट खाइयोंके बीच मनुष्योंको रकरवा । ऊपर नीचेकी भी रक्षा करना उसने छोडा नहीं। नीचेकी तरफ तो दुष्ट स्वभाव बाले क्रूर असुर तथा नारकियोंको वसाया और ऊपरकी तरफ देवोंका वास कराया। निरंतर मनुष्योंकी रक्षा होनेके लिये मनुष्यों से ही बलबानोंको राजा बनाया। परंतु मनुष्यों के स्वामी राजा भी उनकी रक्षा नहीं करसके और खाई कोट आदिसे भी उनकी रक्षा नहीं हुई। जब कि सर्वतोबली यम आकर मनुष्यको पकडलेता है तब उसका रोकना सर्वथा असाध्य हो जाता है। __परंतु वह यम करता क्या है ? जीवको तो नष्ट कर ही नहीं सकता है, केवल उस जीवका पुराने शरीरसे वियोग करा देता है । तो भी शरीर तो नवीन मिल जाता है परंतु पहिला शरीर छोडनेमें जीवको बहुतसे कष्ट अवश्य होते हैं और जिन वस्तुओंके साथ इष्ट मानकर प्रीति उत्पन्न हुई है उन वस्तुओंका वियोग होनेसे अत्यंत कष्ट होता है । इसीलिये जब कि शरीरकी रक्षा होना असाध्य है और यहां की सभी वस्तुओंसे वियोग अवश्य होने वाला है तो फिर इधर प्रीति करना पूरी मूर्खता है । प्रीति आत्मस्वभावके साथ करनी चाहिये जो सदा शाश्वत होनेसे कभी अपनेसे जुदा होने वाला नहीं है । ऐसा करनेसे आगामी नवीन शरीर धारण करना नहीं पडेगा जिससे कि वार वार ऐसे दुःख
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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