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________________ हिंदी-भाव सहित ( जीवनकी अथिरता )। रहेंगे? जब कि ये अवश्य नष्ट होने ही बाले हैं तो तू उनसे पहलेसे नेह छोड कर यदि शाश्वत पदकी प्राप्ति करले तो तेरी बुद्धिमानी है और तब तू ऐसा समझना कि यह पद मुझै सहज यों ही मिलगया। क्योंकि उस पदके प्राप्त होनेमें तेरा गांठका क्या लग जायगा? तपश्चरणादि द्वारा जो शरीर विशीर्ण होगा वह वैसे भी विशीर्ण तो होने ही वाला था। आयु-कायादिकोंका नश्वर स्वभाव दो श्लोकों द्वारा दिखाते हैं: गन्तुमुच्छासनिश्वासैरभ्यस्यत्येष संततम् । लोकः पृथगितो वाञ्छत्यात्मानमजरामरम् ॥७१॥ अर्थः--जो श्वास निरंतर आते जाते हैं उनके द्वारा यह आत्मा तो यहांसे निकल जानेका निरंतर अभ्यास कर रहा है परंतु मनुष्य इससे एक उलटा ही संकल्प बांधता रहता है कि मैं कभी यहांसे मरूंगा ही नहीं, मेरा आत्मा अजर अमर है । अरे, क्या तुझै यह नहीं दीखता कि आयुके अंश श्वासोच्छासके मिषसे निरंतर कम हो रहे हैं, और इसी तरहका अभ्यास करते करते एक दिन यह आत्मा सभी निकल जायगा । अथवा कितने ही अज्ञानी तापस कुंभक आदि योग साधन यह समझकर करते हैं कि हम अजरामर हो जायगे-इसी शरीरमें सदा बने रहेंगे। पर वे यह नहीं समझते कि हम कुंभकके द्वारा जिन प्राणोंको वार वार अपने भीतर भरते हैं वे ही वार वार रेचक योगसे बाहिर निकल जानेका अभ्यास कर रहे हैं । जब कि ऐसा है तो तू अपनेको अजरामर क्यों समझ रहा है ? क्यों आगेके भवोंका सुधार करनेकी तुझै चिंता नहीं है ? और भी: गलत्यायुः प्रायः प्रकटितघटीयन्त्रसलिलं, खलः कायोप्यायुर्गतिमनुपतत्येष सततम् । किमस्यान्यैरन्ययमयमिदं जीवितमिह, स्थितो भ्रान्त्या नावि स्वमिव मनुते स्थास्नुमपधीः ॥७२॥
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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