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प्रस्तावना.
भगवद्गुणभद्र स्वामीने लगभग दश हजार श्लोकोंमें पूर्ण उत्तरपुराण तथा पूर्वपुराणका कुछ अंतिम भाग भी बनाया है। उसमेंसे सार्थ कुछ लोक ग्रंथकर्ताकी निरभिमानता तथा कवित्वका परिचय देनेकेलिये यहां उद्धृत किये देते हैं; जो कि साहित्य व इतिहास के प्रेमी पं. नाथूरामजी प्रेमीने अपनी विद्वत्नमालामें प्रकाशित किये हैं ।
“गुरूणामेव माहात्म्यं यदपि स्वादु मद्वचः । तरूणां हि स्वभावोऽसौ यत्फलं स्वादु जायते ॥ १७ ॥ यदि मेरे वचन सरस वा सुस्वादु हों, तो इसमें मेरे गुरुमहाराजका ही माहात्म्य समझना चाहिये। क्योंकि, यह वृक्षोंका ही स्वभाव है - उन्हींकी खूबी है, जो उनके फल मीठे होते हैं ।
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निर्यान्ति हृदयाद्वाचो हृदि मे गुरवः स्थिताः । ते तत्र संस्करिष्यन्ते तन मेऽत्र परिश्रमः ॥ १८ ॥ हृदयसे वाणीकी उत्पत्ति होती है और हृदयमें मेरे गुरुमहाराज विराजमान हैं, सो वे बहांपर बैठे हुए संस्कार करेंगे ही ( रचना करेंगे ही ) इसलिये मुझे इस शेष भागके रचनेमें परिश्रम नहीं करना पडेगा । मतिमें केवलं सूते कृतिं राज्ञीव तत्सुताम् ।
aियस्तां वर्तयिष्यन्ति धात्रीकल्पाः कवीशिनाम् ॥ ३३ ॥ रानी जैसे अपनी पुत्री को केवल उत्पन्न करती है - पालती नहीं
है, उसी प्रकार से मेरी बुद्धि इस काव्यरूपी कृतिको केवल उत्पन्न करेगी । परन्तु उसका पालनपोषण दाईके समान कवीश्वरों की बुद्धि ही करेगी ।
सत्कवेरर्जुनस्येव शराः शब्दास्तु योजिताः ।
कर्ण दुस्संस्कृतं प्राप्य तुदन्ति हृदयं भृशम् ॥ ३४ ॥ अर्जुनके छोडे हुए बाण जिस तरह दुस्संस्कृत अर्थात् दुःशासनके बहकाये हुए कर्णके हृदयमें अतिशय पीडा उत्पन्न करते थे, उसी प्रकार से सत्कविके योजित किये हुए शब्द दुस्संस्कृत मर्यात्