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________________ ४० आत्मानुशासन. वह पताका. गिर नहीं जाती तबतक दोनों ही बडे व्यग्र रहते हैं । इसी प्रकार तुझे जो यह दुराशा लगी हुई है उसे तू पापकर्मरूप शत्रुओंके सैन्यकी विजयपताका समझ । जबतक यह पताका तुझसे गिराई नहीं जाती तबतक पापरूप शत्रुओंकी हार नहीं होगी । और तबतक उनसे अशांति उत्पन्न होती ही रहेगी। वह अशांति तभी मिटेगी जब कि तू उस दुराशाको मिटा देगा। आशाके वश रहनेसे और भी जो कार्य होते हैं, वे ये हैं:भक्त्वा भाविभवांश्च भोगिविषमान् भोगान् बुभुक्षुर्भृशं, संमृत्त्यापि शमस्तभीतिकरुणः सर्व जिघांसुर्मुधा । यद्यत् साधुविगर्हितं हतमतिस्तस्यैव धिक् कामुकः, कामक्रोधमहाग्रहाहितमनाः किं किं न कुर्याज्जनः ॥५१॥ ___ अर्थः-विसारे सर्पके तुल्य, अनेक भवपर्यंत दुःख देनेवाले भोगोंको सेवनेकी अत्यंत उत्सुकता धारण करके तेंने आगेके लिये दुर्गतिका बंध किया । अत एव अपने उत्तर भवोंको नष्ट करदिया। और अनादि कालसे लेकर अभीतक मरणके दुःख भोगे । तो भी तू उन दुःखोंसे डरता नहीं है। निर्भय होरहा है । जिस जिस कार्यको श्रेष्ठ जनोंने बुरा कहा उसी उसीको तेने अधिकतर चाहां और किया । इससे जान पड़ता है कि तेरी बुद्धि नष्ट होगई है और तुझै आगामी सुखी होनेकी इच्छा नहीं है । इसीलिये तू निंदित कार्य करके अपने सर्व सुख वृथा नष्ट करना चाहता है । ठीक ही है, काम-क्रोधरूप बड़े भारी पिशाचका जिसके मनमें प्रवेश होजाता है वह क्या क्या नहीं करता है ? उसको हिताहितका विवेक कहांसे रह सकता है? (१) 'मृत्वापि स्वयमस्तभीतिकरुणः सर्वान् जिघांसुर्मुधा' ऐसा भी पाठ है। इसका अर्थ ऐसा होगा कि, विषय भोगोंके लिये करुणा रहित सर्व प्राणियोंका वृथा बध चाहते हुए तेरा स्वयं भी मरण हुआ तो भी तू उस मरनेसे डरा नहीं, और न अभी डरता है।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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