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________________ आत्मानुशासन. बाले निर्दय काल की भयंकर चमकती हुई जाज्वल्यमान जठरामिके मुखमें पडकर तू भस्म नहीं हुआ तभी तक तू अपने अंतःकरणको पूर्ण शांत करले; जिससे कि उस कालका आक्रमण आगामी भवके लिये दुःखदायक न हो; क्योंकि, अंतरंगमें शांति (संतेष) उत्पन्न हो जानेसे शुभकर्मका बंध होगा अथवा परम शांति उत्पन्न होनेपर मोश-सु वकी प्राप्ति भी हो सकेगी; जिससे कि फिर सदाके लिये कालका भय मिट जायगा । आशासे छुटकाग पानेका उपायःआयातोस्यतिदुरमा परवानाशासरित्प्रेरितः , किं नावैषि ननु त्वमेव नितरामेनां तरीतुं क्षमः। स्वातन्त्र्यं व्रज यासि तीरमचिरानो चेद् दुरन्तान्तकग्राहव्याप्तगीरवस्त्राविषमे मध्ये भवाब्धेर्भवेः ॥४९॥ अर्थ:--अरे भाई, अन्य वस्तुओंको अपनाता हुआ तू आशारूप नदीके बीच प्रवाहमें पड़ा हुआ बहुत दूरसे वहता चला आरहा है। अर्थात् , अनादि कालसे यों ही भ्रमण करता आरहा है। यह जो अभीतक भ्रमण होता आया है उसका कारण यही है कि तू यह नहीं समझता था कि मैं ही अपने सामर्थ्य से स्वतंत्र होनेपर इसको तर सकता हूं। अब भी तू पर वस्तुओंसे ममत्व छोडकर सावधान हो, अपने स्वरूपको सँभाल, देख, किसी के अवलंबन विना, आप ही तू पार हो जायगा । नहीं तो-यदि अब भी सावधान न हुआ तो, परिपाकमें दुःखदायक कालरूप ग्राहने जिसमें गहरा मुख फाड रक्खा है और इसीलिये जो अत्यंत भयंकर है, उस संसार-समुद्रके वीचमें जाकर तू शीघ्र ही पडेगा। ... वहां जाकर फिर निकलने की तो क्या आशा है कि कब निकलेगा, अथवा निकलेगा भी या नहीं ? क्योंकि, संसार-समुद्रका असली मध्यभाग निगोदस्थान है, जहांसे कि फिर निकलनेकेलिये कोई उद्योग काम ही नहीं देता । जैसे कोई मनुष्य किसी तीव्र वेगले वहने वाली नदीके बीचमें पड़कर बहुत दूरसे वहता आरहा हो तो वह जबतक
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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