________________
हिंदी -भाव सहित ( भोगों की निस्सारता ) ।
२९
भावार्थ, यह वर्तमान जीवन थोडेसे दिनका है । उसका निर्वाह चाहें जिस प्रकार से हो सकता है । यदि पूर्वोपार्जित पुण्यकर्म है तो परिश्रम तथा चिंता न करते हुए भी विषयभोग अवश्य मिलेंगे । नहीं तो न मिलैं या विपरीत मिलें । खैर, कुछ भी हो, तो भी इस जन्मका निर्वाह, तो किसी प्रकार भी हो सकता है, क्योंकि बहुत ही थोडे कालतक यह रहना है । किंतु आगामी भवोंमें चिरकालतक भ्रमण करना है और तत्रापि वे भव सब परोक्ष हैं । इसलिये उनके सुधारकी या उनसे छुटकारा पानेकी चिंता करना बहुत जरूरी है ।
प्राप्त हुए भी भोगों में मंदोद्यमी रहनेका हेतुसहित उपदेश:कः स्वादविषयेष्वसौ कटुविषमख्येष्वलं दुःखिना, यानन्वेष्टुमिव त्वयाऽशुचि कृतं येनाभिमानामृतम् । आज्ञातं करणैर्मनःप्रणिधिभिः पित्तज्वराविष्टवत्, कष्टं रागरसैः सुधस्त्वमपि सन् व्यत्यासितास्वादनः ||३८|| अर्थः- कटुक विषके समान इन विषयों में ऐसा क्या स्वाद है कि जिससे तेने विषयसुखकी वांछा उत्पन्न करके अत्यंत दुःखी होकर उन विषयोंकी खोज करनेमें अपना स्वतंत्रताका अभिमान, जो कि अमृतके तुल्य निर्मल और सुखदायक था, मलिन करलिया, और इसीलिये मनरूप स्वामीके सेवक जो इंद्रियां उनकी आज्ञामें तुझे रहना पडा । अरे, तू विवेकी था तो भी तेरा अनुभव, इन राग - वासना - ओंने उलटा करदिया ! जैसे कि विवेकी मनुष्यके स्वादको भी पित्तज्वर विपरीत कर डालता है । इसीलिये तो जिन विषयोंमें कुछ भी स्वाद नहीं है अथवा जो परिपाक में विपरीत स्वाद देनेवाले हैं उनके पीछे तू उन्हें इष्ट समझ कर लग रहा है । यह बड़ा खेद है ।
विषयतृष्णाकी बहुतायत दिखाते हैं :अनिवृतेर्जगत्सर्वं मुखादवशिनष्टि यत् । तत्तस्याशक्तितो भोक्तुं वितनोर्भानुसोमवत् ।। ३९ ।।