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________________ ३० आत्मानुशासन. कषायकी तीव्रता होती है और वह पापका कारण है । क्योंकि, चाहें इससे होनेवाला शुभाशुभ बंध अनुभवगोचर न हो परंतु कषायोंकी मंदता से साक्षात् ही सुखशांती मिलती है; और तीव्रता होनेसे सुखशांती का भंग होकर आकुलता - दुःख नजर आते हैं; इसलिये कषायोंकी ती - व्रता तथा मंदता परोक्षरीत्या भी सुख दुःखके ही कारण होंगे ऐसा अनुमान होता है । धर्मघातक आरंभ यदि दुःखका कारण ही हो तो शिकार वगैरह खेलते आनंद क्यों होता है ? इसका उत्तरःअप्येतन्मृगयादिकं यदि तव प्रत्यक्ष दुःखास्पदं, पापैराचरितं पुरातिभयदं सौख्याय संकल्पतः । संकल्पं तमनुज्झितेन्द्रियमुखैरासेविते धीधनेकर्मणि किं करोति न भवान् लोकद्वयश्रेयमि ॥ २८ ॥ अर्थ:- शिकारका नाम मृगया है । श्लोकमें आदिशब्द के होसे मद्यादि भी लिया जासकता है। मृगया आदि कर्म करनेमें आकुलता उत्पन्न होती है, क्षोभ उत्पन्न होता है, शरीर और मन असावधानता उन्मत्तता वगैरह उत्पन्न होती है । इस सबके होने से शरीर तथा मनमें सुखशांती नहीं रह सकती किंतु क्रूरता या निर्दयता प्रगट होजाती है । ऐसा विचार करने से मृगया आदि प्रत्यक्ष ही दुःखका कारण है । कभी कभी तो सिंहादि प्रबल जीवोंकी मृगया करते समय उनके द्वारा मृगया करनेवाले मनुष्य ही खुद मारे जाते हैं । दूसरी बात यह कि यह कर्म, विचारने पर भील चांडालादि पापी नीच मनुष्योंका प्रतीत होता है । पर भवमें तो यह अत्यंत भयंकर नरकादिदुःख देनेवाला है ही । ऐसा होने पर भी यदि तेरे मानलेनेसे सिर्फ यह कर्म तुझे सुखदाई जान पडता है तो उस संकल्पको तू उस उभयलोक सुखदाई धर्ममें ही क्यों नहीं लगाता है? कि इंद्रियविषयों को पूर्ण भोगते हुए भी विचारवान् चक्रवर्ती आदि प्रधान पुरुषोंने जिसका पालन किया । अतः विचार करनेपर 1
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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