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आत्मानुशासन.
आदि विशेषण ऐसे हैं कि वे अव्यक्त हों या न भी हों, तो भी काम चलसकता है।
'श्रोताका लक्षण. भव्यः किं कुशलं ममेति विमृशन् दुःखाभृशं भीतिमान्, सौख्यैषी श्रवणादिबुद्धिविभवः श्रुत्वा विचार्य स्फुटम् । धर्म शर्मकरं दयागुणमयं युक्त्यागमाभ्यां स्थितं, गृहुन् धर्मकथाश्रुतावधिकृतः शास्यो निरस्ताग्रहः ॥ ७॥ ___अर्थः-जिसको आगामी मोक्षसुखकी प्राप्ति अवश्य होनेवाली हो, मेरेलिये कल्याण कारी क्या है ऐसा जो विचार कर रहा हो, संसारसंबंधी नरकादिके दुःखोंसे अत्यंत डर चुका हो, आगेकेलिये सुखी होना चाहता हो, धर्म श्रवणकी इच्छा जिसको उत्पन्न होचुकी हो, सुने हुए विषयको जो धारण करनेकी शक्ति रखता हो, सुनकर ग्रहण भी करसकता हो, ग्रहण किये हुए विषयमें विशेष विचार भी करसकता हो, प्रश्नोत्तरादिद्वारा ऊहापोह भी करने वाला हो, सच्चे तत्वको ग्रहण करना भी चाहता हो, एवं दया आदि अनेक गुणयुक्त तथा युक्ति आगमसे निर्बाध सिद्ध हुए कल्याणकारी धर्मको सुनकर जो उसपर पूरा विचार करता हो और फिर विचारपूर्वक उस धर्मका ग्रहण करने वाला हो, दुराग्रहरहित हो, वही जीव धार्मिक कथाओंको सुन सकता है
और उसीको उपदेश देना सफल है । जिसमें उपर्युक्त गुण नहीं मिलते हों, उसके सामने धर्मका व्याख्यान करना निरर्थक है । इसलिये श्रोतामें ये लक्षण अवश्य होने चाहिये।
___ धर्म धारनेकी जरूरतःपापाहुःखं धर्मात्सुखमिति सर्वजनसुप्रसिद्धमिदम् । तस्माद्विहाय पापं चरतु सुखार्थी सदा धर्मम् । ८ ।
अर्थः-पापाचरणसे परिपाक कालमें दुःख उत्पन्न होता है और धर्माचरणसे सुख प्राप्त होता है, इस बातको सभी जानते हैं । इसलिये