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________________ २५२ अतिके प्रेमी हैं वे महावीर स्वामीके समयकी अपेक्षा आदि तीर्थकरके समयके प्राप्त होनेकी अभिलाषा अधिक करेंगे। इसीलिये ग्रंथकारने भी इस ग्रंथका फल उपर्युक्त माना हो तो उचित ही है। इन श्लोकोंमें लल, नन, वव, क्षक्ष, आदि अक्षरोंका अनेक वार आना अनुणस गुणको सूचित करता है। अनुप्रास के रहनेसे कर्णमधुरता प्राप्त होती है । इसी प्रकार इस सारे ही ग्रंथमें कर्णमधुरता है। कर्णकटुता कहीं भी न मिलेगी। और अर्थ तो इसका अतिरोचक है ही। सर्व प्रकारके जैनग्रंथ मिलनेका पता:मैनेजर, जैनग्रंथरत्नाकर कार्यालय-हीराबाग. पोष्ट गिरगांव, चंबई.
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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