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________________ २१८ आत्मानुशासन कभी निश्चित भी होगा या नहीं ?तपः श्रुतमिति द्वयं बहिरुदीर्य रूढं यदा, कृषीफलमिवालये समुपनीयते स्वात्मनि । कृषीवल इवोज्झितं करणचोरबाधादिभि,स्तदा हि मनुते यतिः स्वकृतकृत्यतां धीरधीः ॥२२९॥ अर्थः-किसान खेतमें बीज बोता है। परंतु बीज ऊगकर फल मिलनेतक बहुतसी बाधाएं वीच वीचमें आती हैं। उन सभी बाधाओंको हटाता हुआ किसान अपने खेतकी पूरी व सदा ही रक्षा करता है। जबतक कि खेतीका फल वह अपने घरमें नहीं लाकर रखता तबतक सदा ही सचेत रहता है। निश्चित वह तभी होपाता है जब कि बाहिर पैदा किये हुए अनाजको घरमें लाकर रखलेता है। इसी प्रकार जिस साधुका विचार दृढ है वह तपश्चरण व शास्त्रज्ञानको बाहिरकी तरफ प्रकाशित करता है, उसे बढाता है, परंतु इतनेसे वह निश्चित नहीं बन जाता। इस सवका फल यह है कि आत्मा वीतरागी होकर संसारसे मुक्त होजाय । जबतक यह फल प्राप्त नहीं हुआ है तबतक निश्चित बनकर बैठना ठीक नहीं है । क्योंकि, इंद्रिय-चोरोंका वीचमें सदा ही डर है । इसलिये जब वह साधु इन सव बाधाओंको हटाकर वास्तविक अपने शुद्ध आत्माको प्राप्त कर लेता है तब वह अपनेको कृतार्थ मानता है और निश्चित होकर बैठता है। कितने ही यह समझते हैं कि शास्त्रज्ञान होनेपर विषयमोह कुछ कर नहीं सकता है। परंतु आचार्य कहते हैं कि जबतक कषायोंका संस्कार क्षीण नहीं हुआ तबतक भरोसा नहीं कि कब उस कषा यका उद्रेक बढ जाय । तबतक ज्ञानियोंके चित्तको भी मोह होना दुस्साध्य नहीं है। इसीलिये विषयासक्तिो कभी स्वस्थ होकर मत बैठो । सदा उससे डरते रहो व उसे दवाते रहो । देखोः
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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