SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंदी-भाव सहित (शरीस्से प्रेम कैसे छूटै)। ३०१ उपाय होना असंभव दीखपडा हो तो शरीरसे निर्ममत्व होकर शांतिपूर्वक शरीर त्याग दे । इन दो बातोंके अतिरिक्त तीसरा तो कोई मार्म है ही नहीं। इसलिये इन दोनोंमेंसे जो सुसाध्य व उचित हो वहीं करना चाहिये । उद्वेग करनेकी आवश्यकता नहीं है। अरे भाई, किसीके घरमें यदि आग लगगई हो. तो वह क्या करे ? जहांतक होसकै वहांतक तो आग बुझानेका प्रयत्न करै और घरमें ही बना रहै । वहांसे निकलनेकी आवश्यकता नहीं है । यदि आग बुझना असाध्य दीखै तों चाहिये कि बुद्धिमान् मनुष्य घर छोडकर अलग हो जाय। इसमें है ही क्या ? विचार व खेद माननेकी आवश्यकता नहीं है । खेद माननेपर भी होगा वही कि जो होना है। तो फिर खेद करके आत्माको आगेकेलिये दुःखी करना ठीक नहीं है । काम जो करना है वही करो, परंतु शांततासे करो, जिससे कि ममत्ववश होनेवाले आजतककेसे दुःख आगे प्राप्त न हों। शरीररक्षामें प्रेम होना अज्ञान है । देखोःशिरस्थं भारमुत्तार्य स्कन्धे कृत्वा सुयत्नतः। शरीरस्थेन भारेण अज्ञानी मन्यते सुखम् ॥ २०६॥ अर्थः-अज्ञानी मनुष्य शिरके बोझेसे दुःखी होकर यदि उसे किसी प्रकार कंधेपर लेआया हो तो अपनेको कृतकृत्य व सुखी समझने लगता है। परंतु यह किस कामका सुख ? वह दुःखदायक वोशा चाहें शिरपरसे हट गया हो परंतु शरीरसे तो अलग नहीं हो पाया है ! इसलिये वेदना तो अब भी होगी ही। हाँ, शिरपर रहमेसे यदि वेदना तीव्र होती थी तो अब थोडी कम होगी। इसलिये जिसे बोझेसे पूस छुटकारा पाना इष्ट है उसे चाहिये कि वह वोझेको उतार कर नीचे पटकनेका प्रयत्न करै । जो शिरपरसे कंधेतक लेआनेमें ही प्रसन्न है वह मूर्ख है। २६
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy