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________________ १९२ आत्मानुशासन. अपने सच्चे हितमें लग चुका है और विषयोंकी बुराई साक्षात् अनुभव कर चुका है। एक वार नहीं, किंतु वार वार व भव-भवमें। फिर भी तू उनसे विरक्त क्यों नहीं होता ? क्यों उन्हींमें आसक्ति बढा रहा है ? क्या किसीको यह मालूम पडजानेपर कि मेरे इस भोजनमें विष मिलगया है, तो फिर वह उसको खायगा ? अरे विषय क्या हैं ? विषसे भी बढकर हैं। तो फिर विषयसेवनके फंदेमें तू क्यों फसना चाहता है ? तो ? आत्मन्यात्मविलोपनात्मचरितैरासीदरात्मा चिरं, स्वात्मा स्याः सकलात्मनीनं चरितैरात्मीकृतैरात्मनः । आत्मेसों परमात्मतां प्रतिपतन् प्रत्यात्मविद्यात्मकः, स्वात्मोत्थात्मसुखो निषीदसि लसन्नध्यात्ममध्यात्मना ॥१९३॥ अर्थः-अरे जीव, तू अपना नाश करनेवाले निंद्य आत्मचरित्रोंको धारण करके दुष्ट या नीच जन बन रहा है ! तुझे अपने स्वरूपका कुछ पता ही नहीं रहा कि मैं कौन और कैसा हूं ! अब तू अपने कर्म ऐसे पवित्र कर कि जिनसे आत्मा सुखी हो और तुझे अपनी पहिचान हो, जिससे कि बहिरात्मासे अंतर्यामी आत्मा बन जाय । जब कि तू ऐसा पवित्र हो जायगा तो तेरा अनंत-सुखकारी केवल ज्ञान-गुण अपने आप प्रगट होगा और उस समय सहजमें ही तू आस्माकी परम पवित्र दशाको प्राप्त हो जायगा, जिसे कि परमात्मपद कहते हैं। उस समय अवश्य आत्मीय परम सुख प्रगट होगा, जो कि किसीके पराधीन नहीं है किंतु, अपने ही अधीन जिसकी उत्पत्ति है। उसी समय तू असली शुद्ध आत्माका अनुभव करता हुआ अपने आपेमें मग्न होकर अत्यंत सुख तथा पवित्र ज्ञानके साथ प्रकाशित होता हुआ नजर पडेगा। परंतु यह सब आनंद तबतक मिल नहीं सकता, जबतक कि तू अपने शरीरमें प्रीति कर रहा है। शरीर छूट जानेपर ही ऐसा परम पवित्र सिद्धस्वरूप प्रगट होता है। शरीर उस दशाको कभी प्राप्त नहीं होने देता। और शरीरसे जबतक प्रीति लग रही है तबतक शरीर कैसे छूट सकेगा ? अत एव, १ आत्मने हितमात्मनींनम् । २ आत्मना इत्यां प्राप्याम् ।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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