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________________ हिंदी-भाव सहित (शोकसे हानि)। १८७ जीते-जी तो आकुलता व प्रेमके बंधनमें फसाकर दुःखी करते हैं और मरते हुए इष्टवियोग मनवाकर दुःखी करते हैं। तो भी तुम उनकेलिये शोक ही करते बैठते हो ! यह कहांकी बुद्धिमानी है ? जो मरते मरते भी दुःख देनेसे बंद न पडै उसे सुहृद माननेकी क्या जरूरत है ? उसमें, व एक हाड-वैरीमें अंतर क्या रहा ? तुम यह विचार नहीं करते क्या ? और भी देखोः अपरमरणे मत्वात्मीयानलयतमे रुदन्, विलपतितरां स्वस्मिन् मृत्यौ तथास्य जडात्मनः । विभयमरणे भूयः साध्यं यशः परजन्म वा, कथमिति सुधीः शोकं कुर्यान्मृतेपि न केनचित् ॥१८५॥ ___ अर्थः-मरण तो अलंध्य है। परंतु प्राणी पुत्र-कलत्रादिकोंके मरने पर उन्हें अपना मानता हुआ रोता-पीटता है। अपने मरणको भी पास आते जानकर विचार विचारकर खूब रोता है। यदि निर्भय होकर मरनेके समय सावधानी व धीरता धारण करै तो परलोक भी सुधरता है और साहसी होनेके कारण कीर्ति भी अतिशय बढती है । इसलिये कदाचित् किसी कारणवश यदि किसीका मरण हो तो बुद्धिमान् जन उसका शोक क्यों करने लगा ? शोक उसी मूर्खको होगा कि जो इस बातको समझता नहीं है। जो मरणमें निर्भय होते हैं उनके साहसकी लोग भी अति प्रशंसा करते हैं और राग-द्वेषका उद्रेक न बढनेसे परजन्म भी बिगडता नहीं है। परंतु ऐसी समझ मूखौंको कहांसे हो ? यह समझ तो बुद्धिमानोंको ही होसकती है । दुःख दूर होनेका उपाय:हानेः शोकस्ततो दुःखं लाभाद्रागस्ततः सुखम् । तेन हानावशोकः सन् सुखी स्यात सर्वदा सुधीः ॥१८६॥ अर्थ:-मनुष्य जबतक परवस्तुओंमें रागद्वेषकी भावना रखता है तभीतक दुःखी है । जब कि यह भावना छूटी कि वास्तविक सुख उत्पन्न होता है । देखोः- .
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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