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हिंदी-भाव सहित ( सच्ची ज्ञानभावनां )। १८१ तत्त्वपरीक्षा प्राप्त नहीं हुई है वे इन पराधीन क्षणनश्वर दुःखमय संसारविषयोंकी अभिलाषा करते हैं। घर-द्वार छोडकर तपस्वी बननेपर भी उनकी यह अभिलाषा नष्ट नहीं होपाती। इस मोहकी महिमाका क्या ठिकाना है ? परंतु यह खूब समझलो कि चाहनेसे कुछ मिलता नहीं है।
शास्त्राग्नौ मणिवद्भव्यो विशुद्धो भाति निदे॒तः। अङ्गारवत् खलो दीप्तो मली वा भस्म वा भवेत् ॥१७६॥
अर्थ:-शास्त्रोंका ज्ञान होनेसे वस्तुओंका सच्चा प्रकाश होता है और कर्मकलंक जल जाते हैं। इसलिये शास्त्र-ज्ञान एक प्रकारका अमि है । अनिमें पडनेसे रत्न जैसे शुद्ध होकर चमकने लगता है वैसे ही निर्मोह हुए भव्य जीव शास्त्रज्ञानमें मग्न होकर कर्म-कालिमाको जला डालते हैं और निर्मल होकर अथवा कर्मोंसे छूट कर प्रकाशमान होने लगते हैं । और जिनकी विषयवासना छूटी नहीं हैं ऐसे मोही जीव शास्त्रज्ञानमें प्रविष्ट होकर भी आधे जले हुए अङ्गारकी तरह चमकते तो हैं परंतु मलिन ही बने रहते हैं। अंतमें जब कि पूरे जल चुकते हैं तो भस्मकी तरह प्रकाशसे भी शून्य निस्सार हो जाते हैं । ठीक ही है, मोही जीव यदि ज्ञानका संपादन भी करें तो भी अंतमें विषयासक्त होकर अज्ञानी बन जाते हैं। नीच कर्म करनेसे वे मलिन दीखने लगते हैं व विवेकशून्य होजानेसे अंतमें भस्मकी भांत निस्सार दीख पडते हैं । परंतु ज्ञानी उसी शास्त्रज्ञानके द्वारा पवित्राचरण रखता हुआ चमकता है व अंतमें शुद्ध बनजाता है।।
निर्मोही साधुओंकी शुद्ध ज्ञानभावनाःमुहुः प्रसार्य सज्ज्ञानं पश्यन् भावान् यथास्थितान् । प्रीत्यप्रीती निराकृत्य ध्यायेदध्यात्मविन्मुनिः ॥१७७॥
अर्थः-अपने श्रेष्ठ ज्ञानको वारवार पसारकर यथास्थित सर्व तत्त्वोंको देवै और रागद्वेषको छोडकर उन तत्त्वोंका वार-वार जैसाका १ पुण्णपि जो समाहदि संसारो तेण ईहिदो होदि ।
दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुण्णाणि ॥ स्वामिकुमारः ।