SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंदी-भाव सहित (याचककी निन्दा)। १६५ बनाकर पेट भरनेवाले कुंभार कोलियोंने भी अपनी बराबरी करना चाहा तो आज कुछ आश्चर्य नहीं है। भोजनादिमें भी प्रीति करना साधुको जब कि उचित नहीं है तो उसे कैसा रहना चाहिये ? आमृष्टं सहजं तव त्रिजगतीबोधाधिपत्यं तथा, सौख्यं चात्मसमुद्भवं विनिहतं निर्मूलतः कर्मणा । दैन्यातद्विहितैस्त्वमिन्द्रियसुखैः संतृप्यसे निस्त्रप, स त्वं यश्विरयातनाकद शनैर्वद्धस्थितिस्तुष्यसि ॥१६०॥ अर्थः–तीनो जगतका स्वरूप जानलेनेकेलिये समर्थ तेरा ज्ञान कर्मोंने नष्ट करदिया और आत्मामेंसे उत्पन्न होनेवाला स्वाधीन सुख भी इन कर्मोंने ही निर्मूल नष्ट कर रक्खा है । इतना नाश करके फिर थोडेसे आकुलतापूर्ण पराधीन इंद्रियविषय-जन्य सुखका संयोग तेरे साथ इन कोंने लगादिया है । पर तू इतना दीन व नीच है कि उसीमें तृप्ति मानने लगा। अरे निर्लज, जिसने आत्मकल्याणकेलिये यह मुनिपद धारण किया और अनेक उपवासादिकोंके कष्ट भोगना भी स्वीकार किया बह तू थोडेसे तुच्छ भोजनकी तरफसे फिर भी प्रेम छोडता नहीं है ? उसमें अब भी तेरा प्रेम जुड रहा है ? अब भी तू उसे पाकर संतुष्ट होता है ! कर्मोंने तेरा सब कुछ हरण करके कुछ थोडासा व मिथ्या सुख दिखा रक्खा है । पर तू तो भी और इस पदमें आकर भी उसकी गृद्धता छोडता नहीं है; इस तेरी दीनताका क्या ठिकाना है ? तुझै चाहिये कि इससे पूरा ममत्व छोड दे । और यदि, तृष्णा भोगेषु चेद्भिक्षो सहस्वाल्पं स्वरेव ते । प्रतीक्ष्य पाकं किं पीत्वा पेयं भुक्तिं विनाशयः ॥१६१॥ अर्थः-भोगोंमें ही तेरी तृष्णा बढ रही है तो भी तू थोडी देरतक तो थोडासा कष्ट सह । यह मनुष्य-आयु पूर्ण हुआ कि इंद्रिय १ भवेदद्य श्वो वा प्रकृतिकुटिले पापिनि कलौ । घटानां निर्मातुस्त्रिभुवनविधातुश्च कलहः ॥
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy