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________________ १५८ आत्मानुशासन. धनकी निन्दाःसस्वमाशासते सर्वे न स्वं तत् सर्वतर्प यत् । अर्थिवैमुख्यसंपादिसस्वत्वानिस्वता वरम् ॥१५५॥ अर्थः-अरे याचकों, धनकी चाह तो सभीको है । सभी कोई धनीकी तरफ आशा लगाते हैं। परंतु किसीके पास धन कितना ही हुआ तो भी क्या सभीकी इच्छा उससे पूरी हो सकती है ? नहीं । और बहुतसे धनी तो ऐसे होते हैं कि जो धन होते हुए भी किसीको देना ही नहीं चाहते हैं । इसलिये तुह्मारी इच्छा कभी पूरी नहीं होसकती है । इसीलिये तुम अपनी दरिद्र अवस्थामें ही संतोष करो। तुम तो याचना करते समय तुच्छ बन ही जाते हो, पर जिसको धनी समझकर तुम याचना करते हो वह यदि तुझारी इच्छा पूर्ण न कर सकता हो तो उस धनीसे तुम निर्धन ही अच्छे हो। भावार्थ:-तुमको याचना करनेपर भी सदा सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है । इसलिये तुमको चाहिये कि याचना करके अपने गौरवको नष्ट न करो । विषयोंकी दरिद्रता रहनेपर भी तुम उसीमें संतोष करो । धनी कहलाकर भी जो निर्धन दीन याचककी इच्छा पूर्ण नहीं कर सकते, उनमें व याचकोंमें अंतर ही क्या रहा ? इसीलिये उनका धन पाना निरर्थक है। आशाखनिरतीवाभूद गाधा निधिभिश्व या। सापि येन समीभूता त ते मानधनं धनम् ॥ १५६ ॥ अर्थ:--आशा यह इतना बड़ा गहरा खड्डा है कि कुबेरकी सारी निधियोंसे भी पूरा भर नहीं सकता है । यद्यपि कितना ही खर्च करनेपर निधियोंका भी थाह नहीं लग पाता परंतु वे निधियें प्राप्त हो. १ तं धिगस्तुं कलयनाप वाञ्छामार्थवागवसरं सहते यः। ( नैषधच०) अर्थात, याचना करनेवालका मतलब समझ कर भी जो याचना सुनने तकको प्रतीच्छा करता है यदि उसीको धिक्कार है तो याचकको वापिस करनेवालेकी निन्दाका तो ठिकाना ही क्या है ?
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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