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________________ हिंदी -भाव सहित ( याचककी निन्दा ) । १५५ जाय । तू यदि कहीं से कुछ भी कभी न मांगना चाहें तो तेरा काम चल सकता है । प्रत्युत, न मांगनेपर ही यह तेरी दशा प्रशंसायोग्य व कल्याण साधनेवाली होसकती है । यदि तेने याचना करनेका विचार किया तो तेरा आत्मा मलिन व दीन बन जायगा जिससे कि तेरे कल्याण में बाधा उपस्थित होना संभव है । जो मनुष्य अपनेको उत्कृष्ट व समर्थ समझकर किसी उत्तम ध्येयको साधना चाहता है वही उस अभीष्ट मनोरथ को पूरा करसकता है । याचना करने वाला अपने को असमर्थ दीन समझने लगता है इसलिये उसके हाथ से उत्कृष्ट ध्येय पूरा नहीं हो पाता । जब कि तेने अपना मोक्षरूप सर्वोत्कृष्ट ध्येय समझलिया है तो वृथा याचना करके तू दीन क्यों बनता है ? तू स्वयं समर्थ होसकै इसीलिये गुरुओंने तेरा कल्याणमार्ग सर्वथा स्वतंत्र करदिया है । इसलिये यदि तुझे जंजालोंसे मुक्त होना है तो किसी भी चीजकेलिये किसीसे वृथा याचना मत कर । देख, - परमाणोः परं नाल्पं नभसो न परं महत् । इति ब्रुवन् किमद्राक्षौ दीनाभिमानिनौ ।। १५२ ॥ अर्थ:- कितने ही मनुष्य छोटीसे छोटी चीज परमाणुको कहते हैं व आकाशको बडे से बडा मानते हैं । परंतु उनका यह कहना तभीतक टिकसकता है जबतक कि उनके सामने दीन व अभिमानी आकर खडे न हुए हों । जो याचना करता है वह दीन कहाता है और जो कैसा भी कष्ट आनेपर याचना नहीं करता वह अभिमानी है | अभिमानी आकाशसे भी बडा, गंभीर, महान् दीखता है और दीन परमाणुसे भी तुच्छ बन जाता है । दीनके विचार व आत्मा संकुचित हो जाते हैं । इसीलिये उसे लोग अति तुच्छ समझते हैं और वह आप भी अपनेको अति तुच्छ मानता है । अभिमानी जो कि कभी याचना नहीं करता, वह अपने विचारोंको व आत्माको पूरा विकसित व प्रसन्न रखता है । उसकी प्रसन्नता व गंभीरताका १ ' महत् परं ' ऐसा भी पाठ 1
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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