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________________ ११२ आत्मानुशासन. अर्थः-राजाके हाथसे दुष्टोंका निग्रह होकर शिष्टोंका पालन होता है इसलिये राज्य करना एक बड़ा धर्म है और इसीलिये राज्य पूज्य भी है । जिस तपस्वीको शास्त्रका अच्छा ज्ञान होता है उसका तप भी पूज्य होता है। इस अपेक्षासे यदि देखा जाय तो पूज्य राज्य भी है व तप भी है । परंतु राज्यको भी छोडकर यदि कोई तप करने लगा हो तो वह और भी पूज्य समझा जाता है। किंतु तपस्वी बनकर फिर यदि तप छोडकर राजा होना चाहै या राज्यपदपर आबैठा हो तो बह पूज्यसे अपूज्य बनता है । उसे लोग भ्रष्ट हुआ निकृष्ट समझते हैं । तपस्वीको राजा भी शिर नवाते हैं । राज्यपदसे इतना बडा पुण्य कर्म संचितं नहीं होपाता जिससे कि, आगामी फिर भी राजाओंकी विभूति नियमसे मिल ही जाय । क्योंकि, राज्यपदके साथ साथ मद मात्सर्यादि ऐसे बहुतसे दोष भी लगे रहते हैं कि जिनसे आत्मा अति पवित्र न रहकर मलिन बन जाता है। तपमें यह बात नहीं है । जिस तपमें कर्मोंका निर्मूल नाश करके मोक्ष प्राप्त करानेकी शक्ति विद्यमान है उसके द्वारा राज्यपद प्राप्त होना कौन बड़ी बात है ? क्योंकि, तपसे आत्मा परम पवित्र बन जाता है। ___ इस प्रकार यदि बुद्धिमान मनुष्य विचार करै तो यह बात समझमें सहज आसकती है कि तप राज्यपदसे भी श्रेष्ठ है। जब कि राज्यपदसे भी श्रेष्ठ है व संसारके संपूर्ण ईति भीति आदि संकटोंका इससे नाश होता है तो उस मनुष्यको कि जो पापोंसे व दुःखोंसे डर चुका हो, तप अवश्य स्वीकार करना चाहिये। भावार्थः-विषयभोग तुच्छ हैं, दुःखोंके पैदा करनेवाले हैं। राज्य भी एक सबसे बडा विषयभोग है। इसकी इच्छा भी उन्हीको होती है कि जो धन दौलतको अपनी जानसे भी बड़ा समझते हैं; काम क्रोध अहंकारादिके जो आधीन हो रहे हैं। जो जितेन्द्रिय हैं, आत्माके कल्याण करनेमें लगना चाहते हैं वे इसपर लात मारते हैं। इस प्रकार
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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