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________________ १३८ आत्मानुशासन. यह सब ठीक, परंतु इतने बडे शक्तिशाली होकर भी महादेव स्त्रियों के वश तो हो ही गये। उनकी स्त्री पार्वतीने उन्हें जैसा चाहा नचाया । और भी उनकी दुर्दशा स्त्रियोंद्वारा क्या हुई वह सब ग्रन्थोंसे प्रासद्ध होती है । अब कहिये, जालिम विष कालकूट रहा कि स्त्रियां ? स्त्रियां सबसे अधिक विकट विष हैं । उनके सामने कालकूट विष कोई चीज नहीं है । इनके सहवाससे मनुष्य जीता रहकर भी आत्मकल्याणकेलिये मृतक सदृश बन जाता है। इसीलिये जो कल्याण करलेनेकी इच्छा रखते हों वे चाहे कालकूटसे न डरै पर स्त्रियोंसे अवश्य डरना चाहिये । इस प्रकार देखनेसे स्त्रीके साथ प्रीति करना मानो मोक्षमार्गसे पराङ्मुख होकर संसारमें फसना है । तो भी कुछ लोग इसमें प्राणियोंको फसानेकेलिये स्त्रीको अनेक प्रकारसे हितावह बनाना चाहते हैं। लोगोंकी इसमें रुचि उत्पन्न हो इसकेलिये संसारके उत्तमसे उत्तम वस्तुओंसे इसे बढकर ठहरानेका प्रयत्न करते हैं: अनेक उत्तम वस्तुओंकी इससे तुलना कर दिखाते हैं । देखोः तव युवतिशरीरे सर्वदोषैकपात्रे, रतिरमृतमयूखाद्यर्थसाधर्म्यतश्चेत् । ननु शुचिषु शुभेषु प्रीतिरेष्वेव साध्वी, मदनमधुपदान्धे प्रायशः को विवेकः ॥१३६॥ अर्थः- स्त्रियोंका शरीर, है तो सारे दोषोंकी असली खान; तो भी विषयासक्त मनुष्य इसके एक एक अंगको चंद्रादिके तुल्य उत्कृष्ट समझते हैं और ऐसा कहकर दूसरे भोले मनुष्योंको बहकाते हैं । मुखको अति आनंददायक होनेसे चंद्र समझते हैं । मांसपिंडमय स्तनोंको सुवर्णके या अमृतके भरे हुए कलश कहते हैं । कमलोंके तुल्य आंखोंको मानते हैं। दांतोंको हीरे समझते हैं। इस प्रकार उत्तमोत्तम पदार्थोके तुल्य युवतीके शरीरको बनाकर लोगोंको फसाते हैं । लोग भी फसते हैं।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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