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________________ २२४ आत्मानुशासन. बुरा नहीं है किंतु अच्छा है ग्रहण करने लायक है । और इसीलिये साधुओंको तत्त्वज्ञान, श्रुतज्ञान तथा शास्त्राध्ययनादिमें प्रीति रखकर ज्ञान संपादन करना चाहिये । इसमें प्रीति रखना बुरा नहीं है । इसी बातको और भी स्पष्टतया कहते हैं । देखियेः विधृततमसो रागस्तपःश्रुतनिबन्धनः । संध्याराग इवार्कस्य जन्तोरभ्युदयाय सः॥१२३॥ अर्थः-तप व श्रुतज्ञानके विषयमें उत्पन्न हुआ राग, संसार-विषयसंबंधी अंधकारसदृश अशुभ रागका नाश करनेवाला है। इसीलिये वह जीवको स्वर्ग मोक्षादिके उत्तम फल देनेवाला है, सच्ची आत्मीय संपत्तिको बढानेवाला है, आत्माको शुद्ध बनानेवाला है । तब फिर ऐसे रागको उत्तम ही कहना चाहिये। जैसे सूर्यको प्रातःकालसंबंधी लालिमा आगे चलकर सूर्यके प्रकाश व तेजको बढानेवाली है, सूर्यको शुद्ध बनानेवाली है। इसलिये वह लालिमा सायंकालकी लालिमाकी तरह सूर्यकेलिये अहितका कारण नहीं है किंतु हित-साधक है और इसीलिये वह ग्राह्य है। इसी प्रकार तप व श्रुतज्ञान-शास्त्राध्ययनमें साधुओंको प्रीति बढानी चाहिये । वह कालान्तरमें हितसाधक होती है। जो इस प्रकार ज्ञानाराधन नहीं करते उनकी दशा आगे दिखाते हैं। अशुभ रागका दृष्टांतसहित फलःविहाय व्याप्तमालोकं पुरस्कृत्य पुनस्तमः । रविवद्रागमागच्छन् पातालतलमृच्छति ॥१२४॥ अर्थः-सूर्य जब कि मध्यान्हके पसरे हुए शुद्ध प्रकाशकी अवहेलना करके सामके समय उस रागमें फसता है कि जिससे आगे चलकर अंधकारमें गडप होना पड़े, तब उसका उदय नष्ट हो जाता है, उसे अस्त होना पड़ता है। इसी प्रकार जो संयमी साधु तत्त्वज्ञानादिक अभ्युदयके कारणभूत विषयोंमेंसे तो अपनी प्रीति हटाता हो और तामसी वृत्तिको उत्पन्न
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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