SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंदी-भाव सहित (दैवकी गति आनवार्य )। ११७ प्रारंभ किये कार्यकी सिद्धिकेलिये श्रेष्ठ मनुष्य क्या क्या सहन नहीं करते ? जो श्रेष्ठ कार्यका प्रारंभ करके भी विघ्न आनेपर हट जाते हैं -कार्यको छोड वैठते हैं वे क्षुद्र मनुष्य होते हैं । अच्छे कामोंके वीचमें विघ्न आना तो निश्चित ही है। इसलिये जो विघ्नोंसे डरते हैं वे कभी अच्छे कार्यको पूरा नहीं कर सकते हैं। इसलिये अपने कार्यको अंततक पहुचानेकेलिये बीचमें आया हुआ विघ्न चाहे कैसा भी भारी हो, पर क्या सहना न चाहिये ? अवश्य सहना ही चाहिये । अहो, कर्मके उदयके अनुसार फल तो प्राप्त होता ही है । जिस कर्मने संसारके सर्वश्रेष्ठ महापुरुषों को भी कष्ट देनेसे छोडा नहीं वह क्या साधारण मनुष्योंसे रोका जा सकता है ? नहीं। तो भी अपने कार्यको छोडना न चाहिये । देखोःपुरा गर्भादिन्द्रो मुकुलितकरः किंकर इव, . स्वयं सृष्टा सृष्टेः पतिरथ निधीनां निजसुतः।। क्षुधित्वा षण्मासान् स किल पुरुरप्याट जगती,महो केनाप्यस्मिन् विलसितमलध्यं हत-विधेः ॥११९॥ अर्थः-इंद्र सरीखे, गर्भमें आनेके पहिले ही से सेवकके समान जिनकेलिये हाथ जोडकर खडे होने लगे । जिन्होंने संपूर्ण संसारको उद्योगधंदा आदि प्रवृत्तिमार्ग सिखाकर उचित पथपर चलानेका क्रम सुरू किया । जिनका खुद पुत्र भरतचक्री निधियोंका स्वामी हो चुका था। इंद्रादि सभी महापुरुषोंके पूज्य होनेके कारण जो 'पुरु' इस नामको पाचुके थे। वे भी जब कि कर्मके तीव्र उदयवश हुए तब भूखे प्यासे छह महीनेतक निरंतर भोजनकेलिये पृथ्वीपर भटकते फिरे, पर क्षुधाकी निवृत्तिका यथोचित कहीं प्रबंध एक जगह भी नहीं होपाया । अहो, इस संसारमें कोई कैसा ही बडा पुरुष हो, पर दुष्ट पापी देवकी चेष्टा. को रोक नहीं सकता है। १ विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः-प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति ॥ २ श्रेयांसि बहुविनानीत्येतन्न ह्यधुनाऽभवत् ॥ (अविादभिसिंह: )
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy