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________________ आत्मानुशासन. कामके साधनेमें देरी लगती है । आत्माकी मुक्त अवस्थाका प्राप्त करना मन-वचन-कायके द्वारा आत्माको स्थिर बनानेके अधीन है। क्योंकि, ऐसा करनेसे योग या आत्मचंचलताका निरोध होता है, जिससे कि उद्वेगके कारण आकर बँधनेवाले कर्म, बँधनेसे रुकजाते हैं। पूर्वसंचित कर्मोंका भी उसीसे धीरे धीरे नाश होजाता है । यह सब बात कालसाध्य है । केवल जानलेनेसे इसकी सिद्धि नहीं होती है। जानलेना यह ज्ञान है और चारित्र क्रिया है। इसीलिये तप धारण करलेनेपर एक-दम ही उसकी पूर्णता या कार्यकी सिद्धि उससे नहीं होसकती है। और मनुष्य-शरीरके विना तप या समाधि हो नहीं सकती। इसलिये शरीरकी रक्षा करते हुए उससे त्रियोगसिद्धि तथा मुक्तिप्राप्ति करना बुद्धिमानी है । यह समझकर साधुजन कालान्तरमें त्यागने योग्य इस शरीरको संभालकर रखते हैं और फिर तप करते हैं । ऐसा न समझना चाहिये कि उनके वैराग्यमें कुछ कमी होगी। देखोः क्षणार्धमपि देहेन साहचर्य सहेत कः। यदि प्रकोष्टमादाय न स्याद्धोधो निरोधकः ॥११७॥ अर्थः-कर्मोंका नाश होकर मुक्तिकी प्राप्ति एक-दम नहीं होगी, किंतु क्रमशः होगी, इत्यादि उपरि लिखित विचार यदि साधुओंका पोंचा पकडकर रोकनेवाला उनके हृदयमें न हो तो वे शरीरादि. कसे विरक्त तो इतने हो चुकते हैं कि एक क्षणभर भी देहकी प्रीप्ति तथा सहवास सहना किसको कहते हैं ? क्षणभरमें वे इस शरीरको अन्नादिका निरोध कर नष्ट कर सकते हैं। पर वे विचारते हैं कि इसमें लाभ क्या है ? ___यह कुत्तेकी आदत होती है कि उठाकर ईंट मारनेवालेकी तरफ न झपटकर ईंटकी तरफ वह दौडता है । पर सिंहकी वृत्ति इससे उलटी होती है । वह ईंट मारनेवालेपर टूटता है । क्योंकि, ईंट विचारी क्या करती है ? फेंकनेवाला ही निर्मूल नष्ट करना चाहिये । ठीक, संसारी
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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