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________________ हिंदी -भाव सहित ( क्या करना चाहिये ) । १०१ तीनो लोकका पूर्ण स्वामी बन जायगा । इसलिये तू सब झंझटोंसे अपनेको निराला समझ कर अपने स्वरूपमें ठहरनेका प्रयत्न कर। ऐसे स्वरूपकी प्राप्ति योगियों को ही हो सकती है। एकाकी आत्माका ध्यान करने से त्रैलोक्यपति कैसे बन जाता है यह बात भी योगियों को ही पूरी समझमें आई है । अथवा यों कहिये कि, एकाकीपनेकी भावना से प्राप्त होनेवाला सुख योगियों को ही मिल सकता है; केवल कहने सुनने से वह प्राप्त नहीं होता । एकाकी आत्माको मानकर उसका चिंतन-ध्यान करनेसे तू भी योगी हो सकता है। योगी बननेसे तुझे भी उस परमात्मा पदकी प्राप्ति होगी और तभी उस पदका पूरा आनंद तुझे अनुवगोचर होगा । यह योगिगम्य परमात्मपदकी प्राप्तिका रहस्य तुझे कहा । यहांतक सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीनो गुणोंकी तीन आराघना कहीं । आगे तपश्चरणकी आराधना कहते हैं । दुर्लभमशुद्धमपसुखमविदितमृ ति समयमल्पपरमायुः । मानुष्यमिव तपो मुक्तिस्तपसैव तत्तपः कार्यम् ॥ १११ ॥ अर्थ :- मनुष्य के पर्यायका मिलना तो अत्यंत कठिन बात है पर है यह अत्यंत अपवित्र और सुखरहित । इस पर्यायसे अधिक देवादि पर्याय में सुख प्राप्त होते हैं इसलिये यह सुखका जनक पर्याय भी नहीं कहा जासकता है । दूसरे, इस पर्याय में विपत्ति इतने प्रकार की भोगनी पडती हैं कि इस पर्यायको भी जीव भारभूत समझने लगते हैं। और सचमुच ही इसमें दुःखोंके सिवा है क्या ? मरनेके समयतक की खबर नहीं रहती कि कब किसका मरण होगा । इसलिये और भी यह एक चिंता मनुष्यों के पीछे सदा लगी ही रहती है । पूरा जीवनकाल ही एक तो बहुत थोडा, पर उसके भी वीचमें ही मरण हो जाने का भी भरोसा नहीं है | परंतु तपश्चरण इसी पर्याय में होसकता है । और मुक्ति तपके विना होती नहीं है । तो फिर यदि मुक्ति प्राप्त करना हो तो मानुष्य पर्याय पाकरके तप करना ही चाहिये । 1 1
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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