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________________ हिंदी-भाव सहित ( असली उदासी)। ९१ उनके निःस्वार्थ लक्ष्मी-त्यागकी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी भोडी ही है। लक्ष्मीके छूटते समयकी दशाःश्रियं त्यजन् जडः शोकं विस्मयं साविकः स ताम् । करोति तत्त्वविच्चित्रं न शोकं न च विस्मयम् ॥१०४॥ अर्थ:-जो मनुष्य आलसी है उसे लक्ष्मीके कमानेमें बड़ा भारी कष्ट दीख पडता है । इसीलिये यदि उसके हाथसे लक्ष्मी छूटने लगै या छूट गई हो तो उसे अत्यंत शोक होता है । जो सात्त्विक अर्थात् पराक्रमी है वह लक्ष्मीका कमाना सहज समझता है और इसीलिये उसे लक्ष्मीके जाते दुःख नहीं होता, किंतु इस बातका उलटा गर्व होता है कि मैं जैसा जल्दी लक्ष्मीको त्याग सकता हूं वैसा दूसरा नहीं । क्योंकि, जो मेरे बरावर लक्ष्मी कमा नहीं सकता वह खर्च या त्याग भी कैसे कर सकता है ? इस प्रकार पराक्रमी मनुष्यको लक्ष्मीके त्याग करते अहंकार हो जाता है । पर जो मनुष्य तत्त्वज्ञानी है-जिसे यह मालूम हो चुका है कि लक्ष्मीके आने जानेमें पुण्य पापका उदय कारण है । मेरे उद्योग करने न करनेसे न आती है न जाती है। मुझसे कम उद्योग करनेवाले भी अधिक धनी हैं और अधिक उद्योग करनेवाले भी बहुतसे दुःखी हैं । जब कि ऐसा है तो मैं इसके हानिलाभका मुख्य कारण नहीं हो सकता हूं । ऐसा विवेक-ज्ञान जिन्हें हो चुका है उन्हें लक्ष्मीके जाते या त्यागते हुए न शोक ही होता है और न अहंकार या हर्ष ही होता है । यही आश्चर्य है; क्योंकि, संसारी मनुष्योंको लक्ष्मी जाते हुए शोक, नहीं तो अहंकार अवश्य होता है। इसलिये जिसे शोक या अहंकार कुछ भी नहीं होता उसे देखकर आश्चर्य होना सहज बात है । पर तत्त्वज्ञानियोंको इस बातमें आश्चर्य भी नहीं है । विवेकी मनुष्यको लक्ष्मी जाते तो दुःख सुख नहीं ही होता है किंतु भत्यंत संलम शरीरके छोडने भी उसे कुछ सुख दुःख नहीं होता । देखोः
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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