SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मानुशासन. हुआ। धर्म वही उत्तम है कि जिसके धारण करनेसे मनुष्य इक्ष्वाकु आदि सर्वश्रेष्ठ कुलोंमें जन्म लेकर राजा-महाराजा बन सकते हैं और आजतक बने । वे भी ऐसे वैसे नहीं, किंतु जो ज्ञानका पार पाने बाले हों, अपरिमित धन-संपत्ती तथा हर तरह की उन्नति प्राप्त करने वाले हों; एवं जिन्हें लोग लक्ष्मीकी लालसासे मस्तकपर धारण करते हों। उस धर्मका मार्ग अनेक प्रकारसे है । अर्थात् दान देना, व्रत करना, ज्ञानाभ्यास करना, उपवासादि इंद्रियसंयम धारण करना ये सव धर्मके ही मार्ग हैं । परंतु जब संसारके विषयोंकी वांछा रखकर ये सब काम किये जाय तबतक धर्म नहीं होता । इसीलिये इसे निराश कहा है । अर्थात्, ऐहिक आशा छूट जानेपर यह धर्म बन सकता है। इसीलिये भुजंग अर्थात् जो विषयभोगी जीव हैं उनको यह सर्वथा अगम्य है । विषयभोग और धर्म सेवन ये दोनो परस्पर विरोधी हैं । जिसके एक होता है उसके दूसरा नहीं हो सकता । इस धर्मको सभी श्रेष्ठ पुरुष समझते हैं । दान, दया, देव-पूजा, व्रत, इंद्रियसंयम इन्हें कोन नहीं जानता है कि इनसे आत्मा पवित्र होता है और ये धर्म हैं ? तो भी बडे बडे आचार्यतक इसे मूर्तिमान् पदार्थकी तरह प्रत्यक्ष दिखा नहीं सकते; क्योंकि, घटपटादिकी तरह यह कोई मूर्तिक पदार्थ नहीं है । फक्त मनसे ही इसका चिंतवन हो सकता है । अथवा दीर्घसंसारी विषयासक्त जीवोंको हम कहकर गले उतार नहीं सकते किंतु आर्यपुरुषोंमेंसे तो यह सभीके प्रतीति-गोचर होरहा है । इस श्लोकका पहले श्लोकके साथ संबंध हो रहा है। अर्थात् यह धर्म ही ऐसी अपूर्व वस्तु है कि जिसके धारण करनेसे श्रेष्ठसे श्रेष्ठ राजपद और बडे बडे कुलोंमें जन्म, सर्वोत्कृष्ट ज्ञानका लाभ, इतर जनोंद्वारा सत्कारका लाभ ये सब बातें मिल सकती हैं । और जब कि १ पुण्णपि जो समीहदि संसारो तेण ईडिदो होदि। . दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुण्णाणि ॥
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy