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________________ आत्मानुशासन. भयानक है | मध्यावस्थामें धन उपार्जन के साधनों में फसाकर जो तुझे दुःखी किया वह दुःख भी कुछ कम नहीं, और ऐसा कोई दुःख बचा मी नहीं कि जो तुझे भोगना न पडा हो । बुढापे में भी तुझे कमजोर समझकर अपमानित किया और तेरे दांत तक तोड दिये और भी अनेक कठोर कर दिये, वे भी तू देख । फिर भी तू बडा मूर्ख है कि जो उसी कर्मके वश रहकर चलना चाहता है । भावार्थ, यदि किसीसे एक बार भी धोखा होगया हो किसीने एक वार भी किसीको थोडासा कष्ट दिया हो तो फिर वह प्राणी कभी उसके फंदे में फसना नहीं चाहता। पर, दुष्ट कर्मने तुज़ै अनेक वार दुःसह दुःख दिये हैं जो कि बाल्यावस्था से लेकर बुढापेतक तेने पराधीन होकर भोगे हैं; जिनका कि तू स्मरण भी करता ही होगा । तो भी तू उससे सावधान होकर छुटकारा करलेना नहीं चाहता । इस तेरी मूर्खतापर क्या कहैं ? बुढापे में इंद्रियादि क्षीण होनेका हेतु :अश्रोत्रीव तिरस्कृता पर तिरस्कारश्रुतीनां श्रुति, क्षुर्वीक्षितुमक्षमं तव दशां दृष्यामिवान्ध्यं गतम् । भीत्येवाभिमुखान्तकादतितरां कायोप्ययं कम्पते, निष्कम्पत्वमोदीभवनेप्यासे जराजर्जरे ॥ ९१ ॥ अर्थ:- बुढापेमें असमर्थ होजानेके कारण जो तुप्रै दूसरे लोग अनेक अपमान तथा निन्दा जनक शब्द बोलने लगते हैं उन्हें कान सुनना नहीं चाहते इसीलिये शायद वे सुनने के कामसे विरक्त होकर बहरे बन गये हैं । नेत्र भी तेरी निन्दित और दुःखापन्न दशा देखनेकेलिये असमर्थ होकर शायद अंधे बन गये हैं । तेरा शरीर भी सन्मुख आते यमराजको देखकर ही क्या डर गया है जिससे कि अत्यंत कपने लगा है | यह तेरा शरीर - मंदिर जरा- अभिसे जर्जरित हो चला है; थोडी ही देर में जलकर खाक हो जाने बाला है तो भी तू उसमें निश्चित बना बैठा है । 1
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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