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________________ व्याख्यान ४ : : ४९ : हे प्रभु! मैने कालसौरिक को पाड़े का वध करने से एकदिन के लिये रोक दिया है । इस पर प्रभुने उत्तर दिया कि - उस कालसौकरिकने तो कुए में रहते हुए भी मिट्टी के पांच सो पाड़े बना कर उनका वध किया है । यह सुन कर राजाने जिनेश्वर से कहा कि हे नाथ ! कृपानिधि मैं आप जैसे का शरण छोड़ कर अब किस की शरण में जाउँ ? जिनेन्द्र बोले कि - हे वत्स ! खेद न कर, तू समकित के प्रभाव से इस भव से तीसरे भव में मेरा जैसा पद्मनाभ तीर्थंकर होनेवाला है । ( इस स्थान पर बहुत अधिक विस्तार है. जिस का वर्णन उपदेशकंदली नामक ग्रन्थमें से पढ़िये ) | यह सुन कर हर्षित हो अपने नगर में आकर श्रेणिक राजा निरंतर धर्मकृत्यों करने लगे । वह तीनों काल जिनेश्वर की पूजा करते और हमेशा जिनेश्वर के सन्मुख एक सो आठ स्वर्ण के चावलकणों से साथिया बनाता परन्तु स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्य भक्षण करने के त्याग जितना भी वह नियम नहीं ले सकता था । ऐसा विरति रहित होने पर भी क्षायिक समकित के बल से वह बहोतर वर्ष की आयुष्यवाला, सात हाथ ऊँचा और श्रीमहावीर के समान ही आनेवाली चोवीसी में प्रथम तीर्थंकर होगा । श्रेणिक राजा का जीव पहली नरक में चोराशी हजार
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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