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________________ व्याख्यान ४: :४७ : मार्ग में दर्दुरांक देवने राजाकी परीक्षा करने के लिये नदी में जाल फैला कर मच्छी पकड़ते हुए एक मुनि का रूप दिखलाया । फिर वह मुनि मत्स्य का मांस खाता हुआ दृष्टिगोचर हुआ। इस पर राजाने उससे कहा-साधु ! यह दुष्कर्म करना छोड़ दे । तो वह साधु बोला कि-मैं अकेला ही ऐसा नहीं कार्य करता हूँ किन्तु महावीरस्वामी के सर्व शिष्य मेरे ही समान हैं। यह सुन कर श्रेणिकने उससे कहा कि-अरे ! तेरे ही ऐसा हीन भाग्य है वरन् वीरपरमात्मा के शिष्य तो गंगाजल के समान पवित्र-पुण्य स्वरूप है। इस प्रकार उसकी निर्भत्स्ना कर राजाने ज्योहि नगरी में प्रवेश किया कि उसने एक युवान साध्वी का रूप देखा । उस साध्वीने हाथ पैरों पर अलता का रस लगाया हुआ था, यथायोग्य सर्व अलंकार अंग पर धारण किये हुए थे, नेत्रों में काजल लगाया हुआ था, मुह में पान खाया हुआ था और गर्भवती थी । उसको देख कर राजाने कहा कि-हे भली साध्वी ! ऐसा शासन विरुद्ध आचरण क्यों करती हो ? इस पर उसने उत्तर दिया कि-मैं एकेली ही ऐसी नही हूँ परन्तु सर्व साध्वियें ऐसी ही है। यह सुन कर राजाने कहा कि-हे पापिनी ! तेरा ही ऐसा अभाग्य है कि जिससे ऐसा विरुद्ध आचरण करती है और बोलती है । इस प्रकार उसका तिरस्कार कर राजा आगे बढ़ा। इतने में उस देवताने अपना दिव्य स्वरूप प्रकट कर राजा को प्रणाम कर कहा कि-हे
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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