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________________ व्याख्यान ३: : ३१ : वृत्तिकरण करता है । अध्यवसाय विशेषरूप से यथाप्रवृत्तिकरण से एक आयुकर्म विना दूसरे ज्ञानावरणादिक सात कर्मों को पल्योपम के असंख्यातवे भाग से न्यून ऐसे एक सागरोपम कोटाकोटी की स्थितिवाला बना देता है। यहां से जीव को कर्म से उत्पन्न हुए अत्यन्त विषम रागद्वेष के परिणामस्वरूप कर्कश एवं दुर्भेदी ग्रंथि प्राप्त होती है। इस ग्रंथि तक अभव्य जीव अनंतीवार आते हैं और उनको यथाप्रवृत्तिकरण के कारण ग्रंथिप्रदेश प्राप्त होनेपर अरिहंत की विभूति के देखने से शुभ भाव में वर्तते हुए श्रुतसामायिक का लाभ प्राप्त होता है किन्तु दुसरा किसी भी प्रकार का आत्मिक लाभ नहीं होता । और उस ग्रन्थि को प्राप्त कर कोई भव्य प्राणी परम विशुद्धि से ग्रन्थि का भेद करने को अपूर्वकरण करके मिथ्यात्व की स्थिति जो अंतः कोटाकोटी की है उसमें से अन्तर्मुहूर्त काल तक उसके दलिये प्रदेश से भी वेदना प्राप्त न हो ऐसा अन्तरकरण करता है। तीन करण का अनुक्रम इस प्रकार हैं:जा गंठी ता पढमं, गंठीसमच्छेयओ भवे बीअं। अनियट्टीकरणं पुण, सम्मत्तपुरकडे जीवे ॥१॥ भावार्थ:-ग्रंथि तक आवे तब प्रथम करण ( यथा १ ये करण पहिले कभी भी नहीं करने से इसका नाम अपूर्वकरण हुआ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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