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________________ • ५६८ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर । भावार्थ:-शुश्रूषा, श्रवण आदि बुद्धि के आठ गुण हैं । ये गुण समकितवान में होते हैं, ऐसा ज्ञानी पुरुषों का कहना है । वे इस प्रकार है-- सुश्रूषा अर्थात् सुनने की इच्छा, इसके बिना श्रवणादिक गुण प्राप्त नहीं हो सकते । दूसरा गुण श्रवण अर्थात् शास्त्रादिक सुनना । श्रवण करने से बड़े बड़े गुण प्राप्त होते हैं । इस विषय में षोडशक में कहा है कि-- क्षारांभस्त्यागतो यद्वन्मधुरोदकयोगतः । बीजं प्ररोहमादत्ते तद्वत्तत्त्वश्रुतेनरः ॥१॥ भावार्थ:-खारे जल के त्याग और मीष्ट जल के योग से बीज अंकुर को प्राप्त होता है उसी प्रकार तत्वश्रवण से मनुष्य बोधिबीज के अंकुर को प्राप्त करता है। क्षारांभस्तुल्य इह च, भवयोगोऽखिलो मतः । मधुरोदकयोगेन, समा तत्त्वश्रुतिः स्मृता ॥१॥ भावार्थ:-यहां खारे जल के समान समग्र भवयोग को और मीष्ट जल के योग समान तत्त्वज्ञान के श्रवण को समझना चाहिये । दूसरा गुण ग्रहण अर्थात् श्रवण किये शास्त्र को ग्रहण करना । चोथा गुण धारण अर्थात् ग्रहण किये को नहीं भूलना । पांचवा गुण उहा अर्थात् उसके विषय में विचार
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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