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________________ व्याख्यान ६०: : ५६१ : पुण्य के लिये उसको जला देता था जिसे देख कर सर्व लोग उसकी प्रशंसा करते थे कि-अहो ! इस गृहस्थ का रत्नादिक पर कैसा निर्लोभीपन है ? बाद एक बार उसने रत्ना. दिक से भर कर अपना घर अग्नि से जलाया कि-उस समय प्रचंड वायु के चलने से अग्नि की ज्वाला इतनी ज्यादा वृद्धि को प्राप्त हुई कि-सारा नगर जल कर भस्म हो गया। प्रातः राजाने उस गृहस्थ को दरिद्री कर (सर्वस्व छीन कर) नगर के बहार निकाल दिया। दूसरे नगर में कोई वणिक उसी प्रकार अपना घर जलाने को तैयार हुआ तो इस बात की सूचना मिलने पर, इसका अशुभ परिणाम जान कर राजाने प्रथम ही से उसको ग्राम के बहार निकाल दिया जिससे सम्पूर्ण नगरनिवासी सुखी हुए । हे मुनियों ! उसी प्रकार यह साधु भी बहार से बड़ा आडंबर करता है जो तुमारे लिये भी अनर्थकारक है, अतः इसकी श्लाघा या सेवा करना ही बिलकुल उचित नहीं है परन्तु परिचय भी करना हानिकारक है । यह सुन कर सब साधु उस बाह्याचार का त्याग कर अपने अपने धर्मध्यान में तत्पर हुए। ___अतः हे साधु ! तुम भी इस अभव्य गुरु का त्याग कर शुद्ध चारित्र का पालन करो। यह सुन कर रूद्राचार्य के शिष्य विस्मयचकित हो विचार करने लगे कि-अहो ! यह
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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