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________________ व्याख्यान ५९ : : ५३९ : प्रिय बोलना, शत्रु के पास असत्य भी मधुर बोलना और राजा के पास अनुकूल एवं सत्य वचन बोलना चाहिये । उसकी कलाकुशलता देख कर राजाने हर्षित होकर उससे पूछा कि-तू दूसरी कौन कौन सी कला जानता है ? कोकाशने उत्तर दिया कि-हे स्वामी ! रथकार की मैं सर्व कला जानता हूँ। अपनी इच्छानुसार गति करनेवाले मोर, गरुड़, पोपट, हंस आदि पक्षी काष्ठ के ऐसे बना सकता हूँ कि-जिनके ऊपर रथ के समान बैठ कर पृथ्वी के सदृश आकाश में भी कीलिकादिक प्रयोग से आया जाया जासकता है। यह सुन कर कौतुकप्रिय राजाने कहा कि-मेरे लिये एक ऐसा गुरुड़ बना कि-जिस पर बैठ कर आकाश में रह मैं सम्पूर्ण भूमंडल की शोभा देख सकूँ । राजा की इस प्रकार आज्ञा होने पर कोकाशने वैसा गुरुड़ बनाया। उस गुरुङ को देखने मात्र से ही राजाने प्रसन्न होकर कोकाश का सम्पूर्ण कुटुम्ब आनन्दपूर्वक निर्वाह कर सके ऐसा प्रबन्ध करा दिया । अतः वे वहां सुखपूर्वक रहने लगे। कहा है कि लवणसमो नत्थि रसो, विण्णाणसमो अ बंधवो नत्थि । धम्मसमो नत्थि निहि, कोहसमो केरिणो नस्थि ॥१॥
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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