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________________ : ५३६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : विचारधवल राजा के मरजाने से उसके मंत्रियोने बिना नायक सैन्य को व्यर्थ जान कर जितशत्र राजा को ही भेट के अनुसार पुरी सौंपदी, अतः जितशत्रु राजा वह राज्य भी भोगने लगा। फिर उसने उन चारों नररत्नों की परीक्षा की तो जैसा उसने सुना था वैसा ही उन रत्नों को पाया। एक बार राजाने अंगमर्दक रत्न से अंगमर्दन करा कर फिर उस में से समग्र तेल वापस निकालते समय अंगमर्दक को आज्ञा देकर अपनी एक जंघा में पांच कर्ष जितना तैल बाकी रखाया। फिर सभा में जाकर कहा कि--यदि किसी अन्य अंगमर्दक को अभिमान हो तो उसको मेरी जंघा में से बचा हुआ तैल निकाल कर बताना चाहिये । यह सुन कर अन्य अंगमर्दकोंने अनेकों उपाय किये परन्तु वे एक बिन्दु भी नहीं निकाल सके, अतः वे लजित हो चले गये। दूसरे दिन अंगमर्दक रत्न को राजाने जंघा का तैल निकालने की आज्ञा दी परन्तु अंगमर्दक रत्न दूसरे दिन तैल न निकाल सका। क्योंकि-उसकी शक्ति उसी दिन तैल निकालने की थी। राजा की जंघा में रहा हुआ तैल जैसे कुए की छाया कुए में ही रहती है उस प्रकार उसी जगह स्थित हो गया उससे उसकी जंघा कौऐं के वर्ण सदृश श्याम वर्ण की हो गई । तब से ही उसका नाम काकजंघ प्रसिद्ध हो गया। राजा जैसे होते है लोग ऐसे उपनाम रख देते हैं क्योंकि जगत के मुंह पर कपड़ा नहीं बांध सकते अपितु अच्छे उपनाम बुरे उप
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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