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________________ व्याख्यान ५८ : :: ५२९ : आप के प्रसाद से रानी बनूंगी। इस पर कृष्ण ने वीरक सालवी से आज्ञा लेकर उसको प्रव्रज्या ग्रहण कराई । इस प्रकार कृष्णने कई जीवों को दीक्षा दिलाई परन्तु स्वयं अप्रत्याख्यानी कषाय के उदय से व्रतादि ग्रहण न कर सके। एक बार श्रीनेमिनाथ जिनेश्वर रैवतकगिरि पर समवसर्ये तो कृष्ण अपने परिवार सहित प्रभु को वंदना करने को गया। वहां अढारह हजार साधुओं को उसने द्वादशावर्त वंदन द्वारा वंदना की । अन्य राजा तो थक जाने से थोड़े थोड़े साधुओं को वंदना कर ठहर गये परन्तु वीरक सालवीने कृष्ण के साथ साथ अन्त तक सर्व मुनियों को द्रव्य वन्दना की । अन्त में वंदना के परिश्रम के कारण कृष्ण के गात्र पसिने से आर्द्र हो गये । सर्व मुनियों को वन्दना कर कृष्णने प्रभु के पास जाकर कहा कि-हे भगवंत ! तीन सो साठ युद्ध करते हुए भी मुझे इतना श्रम नहीं हुआ। इस पर भगवानने कहा कि-हे कृष्ण ! तुमको आज बहुत लाभ हुआ है । तुमने आज सात कर्म प्रकृति का नाश कर क्षायिक समकित उपार्जन किया हैं तथा आनेवाली चोवीसी में पहले से गिनते हुए बारहवा और अन्त से गिनते तेरवें अमम नामक तीर्थंकर होने का कर्म उपार्जन किया है तथा सातवी नरक का जो आयुष्य बांधा था वह तीसरी नरक का हो गया है । यह सुन कर कृष्णने कहा कि-हे भगवंत ! फिर
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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