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________________ व्याख्यान ५७ : : ५१९ : है, उस सुख को कोई उपमा नहीं दी जासकती ( निरुपम है) तथा वह सुख प्रतिकार रहित सत्य ही है । अपितु हे प्रभास ! वेद में भी संसार और मोक्ष का स्वरूप बतलाया गया है । वह इस प्रकार है " न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोर पहतिरस्ति ! अशरीरं वा वसंतं प्रियाप्रिये न स्पृश्यत इति " न यह अव्यय निषेध के लिये है । ह और वै ये दोनों भी अव्यय हैं इसका अर्थ इस प्रकार होता है । शरीर के साथ रहे वह स शरीरी जीव । उस (जीव ) को प्रिय अप्रिय अर्थात् दुःख सुख की अपहति अर्थात् उसका विनाश नहीं (अर्थात शरीर के साथ रहा हुआ जीव सुख दुःख प्राप्त करता है) और शरीर रहित अर्थात् मुक्ति की अवस्था में रहे हुए को (लोकाग्र में रहे हुए को) वे प्रिय तथा अप्रिय ( सुख दुःख ) स्पर्श नहीं करते । ( मोक्ष में प्रियाप्रिय नहीं अर्थात् वहां आत्मा स्वस्वरूप में ही रहती है)। यहां यदि कोई प्रश्न करे कि वह मोक्ष सुख कैसे प्राप्त हो ? तो इसका यह उत्तर है कि- ज्ञान, दर्शन और चारित्र बिना अन्य किसी से भी उस की प्राप्ति नहीं हो सकती । इस विषय में दर्शन सप्ततिका में कहा है किसम्मत्तनाणचरण - संपन्नो मोक्खसाहणोवाओ । ता इह जुत्तो जत्ता, ससत्तिओ नायतत्ताणं ॥१॥ ,
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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