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________________ : ४८२ : . श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : मुझे सो पाड़े का बली दे। कुमारने हंस कर उत्तर दिया किमेरा रोग तो केवली भगवंत की कृपा से गया है, अतः क्या तुझे पाड़े मांगते शर्म नहीं आती ? मैं जब एक कुंथुवा की भी हिंसा नहीं करता तो फिर तू यह क्या मांगता है ? यह सुन कर यक्षने क्रोध में आकर कहा कि-अरे ! ठीक है, तो अब मैं तुझे मेरा बल दिखलाउंगा सो देखना, ऐसा कह कर वह अदृश्य हो गया । एक वार कुमार वन में स्थित जिनालय में जा प्रभु की पूजा कर वापस घर की ओर आ रहा था कि-मार्ग में उस यक्षने कुमार के दोनों पैर पकड़ उसको भूमि पर पछाड़ कर बोला कि-अरे ! क्या अब भी तू तेरे आग्रह को नहीं छोडेगा ? कुमारने उत्तर दिया कि-हे यक्ष ! तू जीव हिंसा करना छोड़ दे । कहा भी है किश्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि, यदुक्तं ग्रंथकोटिभिः । परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥ १॥ भावार्थ:-जो बात क्रोड़ो ग्रन्थों में कही गई है उस बात को मैं आधे श्लोक में ही कहता हूँ कि-परोपकार पुण्य के लिये है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाना पाप है । हेमधेनुधरादीनां, दातारः सुलभा भुवि । दुर्लभः पुरुषो लोके, यः प्राणिष्वभयप्रदः ॥२॥
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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