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व्याख्यान ५२ :
.४५९ :
नियमों का निरतिचार पालन कर स्वर्ग सुख को प्राप्त कर अन्त में मोक्षसुख को प्राप्त करेगा। इत्युपदेशप्रासादे चतुर्थस्तंभे एकपञ्चाशत्तम
व्याख्यानम् ॥ ५१ ॥
व्याख्यान ५२ वां
देवाभियोग आगार कुलदेवादिवाक्येन, यन्मिथ्यात्वं विधीयते । स सम्यक्त्वरतानां च, भवेत्सुराभियोगकः ॥१॥
भावार्थ:-कुलदेवादिक की आज्ञा से यदि मिथ्यात्वका सेवन करना पड़े तो उसे सम्यक्त्वधारी के लिये देवाभियोग आगार कहते हैं। . ' चूलनीपिता श्रावक के सदृश कई प्राणी तो व्रत ग्रहण करने के पश्चात् देवादिक के उपसर्ग से चलित हो जाते हैं परन्तु उनको महादोष नहीं लगता क्योंकि मिथ्यादुष्कृत आदि से उन दोषों की निवृत्ति हो जाती है जब कि-कई प्राणी उत्सर्ग मार्ग में स्थित रहने से नमि राजर्षि के सदृश चलित नहीं होते।
नमिराजर्षि की कथा अवन्ति देश के सुदर्शन नगर में मणिरथ राजा राज्य करता था। उसका छोटा भाई युगबाहु युवराज पद पर था