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________________ ज्याख्यान ५१ : भावार्थ:-माता, पिता, कलाचार्य, अपना ज्ञातिवर्ग, वृद्ध जन तथा धर्मोपदेशक-ये गुरु कहलाते है ऐसी सत्पुरुषों की मान्यता है । . इन गुरुवर्ग में से जो मिथ्यादृष्टि के भक्त हों और उन के वाक्य से निषिद्ध कार्य भी करना पड़े तो इससे व्रत का मंग नहीं होता, फिर भी कई ऐसे भी है जो अपवाद मार्ग का त्याग कर उत्सर्ग पक्ष का ही अवलंबन करते हैं अर्थात् ऐसे गुरुवर्ग के कहने से भी ग्रहित नियमादि का भंग नहीं करते । इस सम्बन्ध में निम्न लिखित सुलस का दृष्टान्त प्रसिद्ध है सुलस की कथा राजगृह नगर में अत्यन्त निर्दय, अभव्य और सदैव पांचसो पाड़ों का बध करनेवाला कालशौकरिक नामक कसाई रहता था। एक बार श्रेणिकराजाने अपनी नरकगति का निवारण करने के लिये उसको कुए में डाल दिया तो वहां भी उसने मिट्टी के पांचसो पाड़े बना कर उनका वध किया। फिर राजाने उसके हाथ पैर बांध कुए में डाला तिस पर भी उसने मन की कल्पना से सेंकडो पाड़े बना कर उनका वध किया। इस प्रकार सदैव जीवहिंसा करते हुए उसने अत्यन्त पापकर्म उपार्जन कर सातवीं नरक का आयुष्य बांधा। मृत्युकाल समीप आने पर वह कालशौकरिक रोग से अत्यन्त
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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