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________________ :४४६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : को बचाती हुई शीघ्र ही घर से बाहर निकल अपने पिता के गृह की ओर प्रयाण किया। मार्ग में चोरोंने उसको पकड़ लिया । उसके वस्त्राभूषण छीन कर उसको उनके पल्लीपति के सिपुर्द किया। पल्लीपतिने उसके मनोहर रूप को देख कर उसके साथ संभोग करने को अनेकानेक प्रार्थना की परन्तु जब उसने स्वीकार नहीं किया तो उसको अनेक प्रकार के कष्ट देने लगा। तब वह बोली कि मेरे प्राणों का अन्त आने पर भी मैं अपने शील का खंडन नहीं करूंगी, अतः तू व्यर्थ क्यों चेष्टा करता है ? ऐसा कहने पर भी जब पल्लीपति न समझा तो उसको बोध करने के लिये उसने एक कथा सुनाना आरंभ किया कि कोई तेजोलेश्या की सिद्धिवाला तापस किसी वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था कि-किसी बगलीने उसके मस्तक पर पीठ कर दिया। इससे कुपित हो उस तपस्वीने अपने तेजोलेश्याद्वारा उसको भस्म कर दिया और विचार किया किजो कोई मेरी अवज्ञा करेगा उसीको मैं तेजोलेश्याद्वारा भस्म कर दंगा । ऐसा विचार कर वह तपस्वी भिक्षा के लिये किसी श्रावक के घर पर गया । उस श्रावक की पतिव्रता स्त्री अपने पति की सेवा में व्यग्र थी, अतः वह उस तपस्वी को भिक्षा देने के लिये कुछ विलंब कर आई । इस से कुपित हो उस तपस्वीने उस पर अपनी तेजोलेश्या का
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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