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________________ व्याख्यान ४६ : : ४१३ : मतानुयायीओं के प्रसंगद्वारा अनेकों दोषों की वृद्धि होती है, अतः उनका वंदनादि वर्जनीय है। इस यतना पर संग्रामसूर राजा की कथा प्रसिद्ध है, जो इस प्रकार है संग्रामसूर राजा की कथा पमिनीखंड नामक नगर में संग्रामदृढ़ राजा के संग्रामसूर नामक पुत्र था । वह सदैव आखेट कर अनेकों प्राणियों का बध किया करता था । उसके पिताने उसको बहुत कुछ समझाया बुझाया किन्तु जब उसने अपना कदाग्रह नहीं छोड़ा तो उसने उसका तिरस्कार कर अपने नगर से बाहर निकाल दिया। वह ग्राम के बाहर एक गांव बसा कर रहने लगा। वहां वह सदैव कुत्तों को साथ ले वन में जा अनेकों प्राणियों का बध कर प्राणवृत्ति करने लगा । एक बार वह कुत्तों को वहीं छोड़ किसी ग्राम को गया। उस समय उस उद्यान में किसी मूरिमहाराज का पधारना हुआ । उन्होंने उन कुत्तों को प्रतिबोध करने के लिये मधुर वचनों से कहा किखणमित्तसुखकज्जे, जीवं निहणंति जे महापावा । हरिचंदणवणखंडं, दहंति ते छारकजम्मि ॥१॥ भावार्थ:-जो महापापी प्राणि क्षणमात्र के सुख के लिये दूसरे प्राणियों का बध करते हैं वे मानों रक्षा (राख) के लिये हरिचंदन वृक्षों के वन को जलाते हैं।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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