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________________ : ४१० : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : अनिजितेन्द्रियग्रामो, यतो दुःखैः प्रबाध्यते । तस्माज्जयेदिन्द्रियाणि, सर्वदुःखविमुक्तये ॥१॥ . भावार्थ:-जिस पुरुषने इन्द्रियसमूह पर विजय प्राप्त नहीं की वह ही दुःख से दुःखी होता है, अतः सर्व दुःखों से मुक्त होने के लिये इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना चाहिये। न चेन्द्रियाणां विजयः, सर्वथैवाप्रवर्तनम् । रागद्वेषविमुक्त्या तु, प्रवृत्तिरपि तज्जयः ॥ २॥ भावार्थ:--केवल इन्द्रियों की प्रवृत्तियों का सर्वथा रोध करना ही इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना नहीं कहला सकता, परन्तु रागद्वेष का त्याग कर इन्द्रियों की प्रवृत्ति करना भी इन्द्रियजय कहलाता है। हताहतानीन्द्रियाणि, सदा संयमयोगिनाम् ।। अहतानि हितार्थेषु, हतान्यहितवस्तुषु ॥३॥ भावार्थ:-संयमधारी योगियों की इन्द्रियों हत (रूंधी हुई) और अहत (प्रवर्तित) दो प्रकार की होती है। हितकारी कार्य के विषय में अहत और अहितकारी वस्तु के विषय में हत-रुंधी हुई होती हैं। __ ऐसा सुन कर जयश्रेष्ठी को प्रतिबोध हो गया और
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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