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________________ : ४०६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर . भावार्थ:--अन्य जनों को प्रमाद से निवृत्त करनेवाला स्वयं निष्पाप मार्ग का प्रवर्तक तथा हित की इच्छा से मोक्ष के अभिलाषी प्राणियों को हितकारी तत्त्व का उपदेश करनेवाला सुगुरु कहलाता है । वंदिजमाणा न समुक्कसंति, हिलिजमाणा न समुज्जलंति । दमंति चित्तेण चरंति धीरा, मुणी समुग्घाइयरागदोसा ॥ २ ॥ भावार्थ:-जो वन्दना-स्तुति करने से नहीं रीझते और निन्दा करने से खेदित भी नहीं. होते तथा चित्तद्वारा इन्द्रियों का दमन करते हैं, धैर्य धारण करते हैं और रागद्वेष का नाश करते हैं उन्हीं को मुनि कहते हैं । गुरु दो प्रकार के होते हैं, तपस्यायुक्त और ज्ञानयुक्त । तपस्यायुक्त बड़ के पत्ते के सदृश केवल अपनी आत्मा को ही भवसागर से तारते हैं और ज्ञानयुक्त वाहन के सदृश स्वयं तथा अन्य अनेकों जीवों को तारते हैं। इस प्रकार गुरु के गुणों का वर्णन कर राजाने अनेकों लोगों को धर्मानुयायी बनाया परन्तु उस नगर में एक जय नामक नास्तिक बणिक रहता था जो इस प्रकार कहा करता
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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