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________________ व्याख्यान ४४ : : ४०१ : __उस सर्प को प्रतिबोध करने की इच्छा से अन्य लोगों के निषेध करने पर भी प्रभु उसी रास्ते पधार कर उसी चंडकौंशिक सर्प की बांमी पर कायोत्सर्ग कर खड़े रहे । उनको देख कर क्रोध से ज्वलित हो चंडकौशिक सर्प सूर्य के सन्मुख देख देख कर मुँह से ज्वाला निकालने लगा परन्तु जब उन ज्वालाओं का प्रभु पर कोई असर नहीं हुआ तो उसने प्रभु के पैर में काट लिया जिससे प्रभु के पैर में से गाय का दूध के सहश श्वेत शोणित निकलने लगा। उस. को देख कर तथा प्रभु के वचन सुन कर कि-" हे चंडकौशिक ! बोध प्राप्त कर।" इहापोह करते हुए उसको जाति. स्मरण ज्ञान हो आया, अतः पश्चात्ताप कर उस सर्पने प्रभु की तीन प्रदक्षिणा कर वन्दना कर अनशन ग्रहण किया। फिर अन्य जंतुओं की मेरे विष की ज्वाला से मृत्यु न हो ऐसा विचार कर उसने अपना मुह बिल के अन्दर रक्खा । लोगों को इस बात की सूचना होने पर सब लोग उस मार्ग से. हो कर निकलने लगे। घी, दूध आदि को बेचने के लिये जानेवाली ग्वाल वधुओंने उस सर्प की पूजा निमित्त उस पर घृत को सिंचन किया जिसके फलस्वरूप अनेको चिटियोंने उसे घेर लिया और उसके समस्त शरीर को चलनी के समान असंख्य छिद्रवाला बना दिया । उसके दुःख से अत्यन्त पीडा सहन करते हुए भी प्रभु की दृष्टिरूप अमृत
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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