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________________ : ३९६ : श्री उपदेशपालाद भाषान्तर : में दोनों मित्रों तथा अपनी प्रिया को देख कर हरिवाहन के आनन्द की सीमा न रही । फिर राजा तथा मित्रोंने अपना अपना सर्व वृत्तान्त एक दूसरे को कह सुनाया। उन दोनों कन्याओं का हरिवाहनने उन दोनों मित्रों के साथ विवाह संस्कार कराया । उधर इन्द्रदत्त राजा को उसके कुमार तथा उसके मित्रों का पत्ता चलने से उनको अपने राज्य में बुलाये और हरिचाहन कुमार को राज्यभार सोंप खुदने वैराग्यभाव उत्पन्न होने से प्रव्रज्या ग्रहण की। कुछ समय पश्चात् इन्द्रदत्त मुनि को कर्मक्षय होने से केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, अतः वह भोगबती नगरी में समवसर्ये । उस समय हरिवाहन राजा के परिवार सहित उद्यान में जाकर केवली को वन्दना करने भर केवलीने धर्मदेशना दी किविषयामिषसंलुब्धा, मन्यन्ते शाश्वतं जगत् । आयुर्जलधिकल्लोललोलमालोकयन्ति न ॥१॥ भावार्थ:-विषयरूपी मांस में लुन्ध हुए प्राणी इस संसार को शाश्वत-विनाश रहित मानता है, परन्तु समुद्र के कल्लोल सदृश चपल आयुष्य को न देखते हैं, न विचार ही करते हैं। ____ इस प्रकार धर्मदेशना सुन कर राजाने केवली से पूछा कि-" हे स्वामी ! मेरा आयुष्य कितना शेष है ?" केवलीने
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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