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________________ : ३९० : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : सिद्ध होगें।" यह सुन कर राजकुमारने उत्तर दिया कि-"हे सुन्दर भृकुटीवाली स्त्री ! तू खेद न कर ।" इस प्रकार वे आपस में बातें कर ही रहे थे कि-वह विद्याधर वहां आ पहुंचा । कुमार को देख कर क्रोधित हो विद्याधर उसके साथ युद्ध करने लगा परन्तु कुमारने अप्सराओं की दी हुई जगतजेत खड्ग रत्नद्वारा उसको परास्त कर दिया। इस पर उसने कहा कि-" हे साहसिकशिरोमणि ! मैं तेरे पराक्रम को देख कर अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ, अतः यह स्त्री और यह नगर तेरे को भेट करता हूँ जिसका तू सुख से उपभोग करना । मैं तो मेरे स्थान को जाता हूँ।" ऐसा कह कर वह विद्याधर स्वस्थान को लौट गया। तत्पश्चात उस विद्याधर की लाई हुई सामग्रीद्वारा हरिवाहनने उस राजकन्या के साथ विवाह कर उसको उपरोक्त दिव्य कंचुक भेट दी और उस नगर में अनेकों लोगों को बसा कर अपने राज्य का पालन करने लगा। एक बार हरिवाहन राजा अपनी प्रिया सहित नर्मदा नदी के किनारे जाकर उत्तम वस्त्रों को किनारे पर रख जल. क्रीडा करने लगा कि- उस समय उस दिव्य कंचुक को जो कि-अन्य वस्त्रों के साथ किनारे पर ही रखा हुआ था, पद्मराग मणि की कान्तियुक्त होने से मांस की भ्रांति से किसी मत्स्यने आकर खा लिया। राजा आदि सब यह जान
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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