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________________ :: ३८६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : एसु विरजमाणे आरंभपरिग्गहपरिचायं करोति । आरंभपरिग्गहपरिचायं करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिदंति सिद्धिमग्गपड़िवनेय भवति ।” निर्वेद से देव, मनुष्य और तिर्यच सम्बन्धी कामभोग के विषयों से वैराग्य प्राप्त कर सच्चे निर्वेद को प्राप्त करता है और सर्व विषयों में विरक्ति प्राप्त होती है। सर्व विषयों में विरक्ति होने से आरंभ परिग्रह का त्याग होता है। आरंभ परिग्रह का त्याग होने से संसारमार्ग का उच्छेद होता है और सिद्धि(मोक्ष)मार्ग की प्राप्ति होती है। इस प्रसंग पर निम्नस्थ हरिवाहन का प्रबंध प्रसिद्ध है-- हरिवाहन राजा की कथा भोगवतीपुरी में इन्द्रदत्त राजा राज्य करता था । उस के पुत्र का नाम हरिवाहन था। उसके एक सुथार पुत्र तथा एक श्रेष्ठी पुत्र दो मित्र थे । उन दोनों मित्रों के साथ हरिवाहन स्वेच्छा से क्रीड़ा किया करता था। राजा को यह बात अखरती थी, अतः उसने एक बार दुर्वचनों से उसका तिरस्कार किया । उस तिरस्कार के दुःख को सहने में असमर्थ होने से हरिवाहन अपने दोनों मित्रों सहित उसके माबाप के स्नेह का त्याग कर वहां से चल पड़ा । चलते चलते तीनों मित्र एक महान अटवी में जा पहुंचे, वहां उन्होनें एक मदोन्मत्त हाथी को अपनी सूंढ को उलालते
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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