SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याख्यान ४२ वां समता का दूसरा संवेग नामक लक्षण दुःखत्वेनानुमन्वानः, सुरादिविषयं सुखम् । मोक्षाभिलाषसंवेगाञ्चितो हि दर्शनी भवेत् ॥१॥ भावार्थ:- जो पुरुष देवादिक के सुखों को भी दुःख सदृश समझते हैं, और मोक्ष के अभिलाषारूप संवेग सहित हों उनको समतिवंत कहते हैं । इस सम्बन्ध में निर्ग्रन्थ मुनि का प्रबन्ध बतलाया हैनिर्ग्रन्थ (अनाथी ) मुनि की कथा राजगृह नगर में श्रेणिक राजा राज्य करते थे । उसने ग्राम के बाहर उद्यान में क्रीडा करते समय एक अत्यन्त कोमल शरीरवाले तथा जगत को विस्मय करनेवाले अत्यन्त रूपवान मुनि को समाधि में तत्पर देख कर विचार किया कि - अहो अस्य मुने रूपमहो लावण्यवर्णिका । अहो सौम्यमहो क्षान्तिरहो भोगेष्वसंगता ॥१॥ भावार्थ:-- अहो ! इस मुनि का स्वरूप ! अहो ! इसके लावण्य की कार्णिका ! अहो ! इसकी सौम्यता ! अहो ! इसकी क्षमा ! और अहो ! इसकी भोग में भी असंगति अर्थात् ये सर्व अप्रतिम है ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy