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________________ : ३६८ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : बोध करने के लिये उसने एक कड़वी तुंबड़ी देकर कहा कि-हे पुत्र ! मेरा एक बचन अवश्य स्वीकार सब तीर्थों में फिरना कि-तेरे साथ साथ विधिपूर्वक इस तुम्बड़ी को भी स्नान कराना । यह सुन कर माता की आज्ञा सिरोधार्य कर गोविन्द अपनी इच्छानुसार तीर्थयात्रा को निकला और अनेकों तीर्थों में जाकर माता के कथनानुसार अपने साथ साथ उस तुम्बड़ी को भी विधिपूर्वक स्नान कराया और अनेक स्थान पर मुंडन करा, हाथों पर अनेकों छापें लगवा अपने ग्राम को लौटा और अपने घर आकर माता को विनयपूर्वक वन्दना कर तुम्बड़ी का सब वृत्तान्त कह कर उसे लौटा दिया। भोजन करने के समय गोविन्द जब भोजन करने बैठा तो उसकी माताने उस कड़ी तुम्बड़ी का शाक बना कर रक्खा । गोविन्दने उस शाक में से लेशमात्र ही चखा कि-शीघ्र ही चिल्ला उठा अरे ! यह शाक तो विष तुल्य कड़वा है, यह नहीं खाया जा सकता। इस पर माताने उत्तर दिया कि-है पुत्र ! जिस तुम्बड़ी को तूने सर्व तीर्थों में स्नान कराया है उस में कंडुवापन क्यों कर रह सकता है ? गोविन्दने उत्तर दिया कि-हे माता ! जल में स्नान कराने से इसके अन्दर का कडुवापन क्यों कर दूर हो सकता है ? माताने पूछा कि-हे वत्स ! जब इसका कडुवापन का दोष नहीं गया तो फिर हिंसा, मृषावाद, चोरी, मैथुन आदि आत्मा को लगे हुए पापसमूह केवल
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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