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________________ : ३५४ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : इस प्रकार विचार कर उन शिल्पीयोंने उस स्थान पर राजधानी बनाने का खातमुहूर्त कर उसका नाम पाटल वृक्ष के नाम से पाटलीपुर रक्खा । उदायी राजा वहां आकर राज्य करने लगा। · उदायी राजा के वहां आने पश्चात् उसके शत्रुगण उसके प्रतापरूपी प्रचन्ड सूर्य के उदय से चकाचौंध हो अन्धे (अर्थात् शक्तिहीन) हो गये । उदायी राजाने प्रतिदिन दान, युद्ध और धर्म का बहुत विस्तार कर जैनधर्म की पृथ्वी पर सर्वत्र प्रभावना की । सद्गुरु से बारह व्रत अंगीकार किया और उनका कमी खंडन नहीं किया। उसका समकित अत्यन्त दृढ़ था । वह चार पर्वणी के चार उपवास कर, देवगुरु की वन्दना कर, छ आवश्यक की क्रिया कर, पौषध ग्रहण कर आत्मा को पवित्र करता था। उसने अपने अन्तःपुर में ही एक पौषधशाला बनवाई जिस में रात्रि के समय विश्रांति लेकर साधु के समान संथारा करता था। इस प्रकार वह जैनधर्म की सर्व क्रियाओं में अत्यन्त कुशल था। .. उदायी राजाने रणसंग्राम में किसी राजा को मारा होगा इसलिये उसका पुत्र अपने पिता का वैर लेने के लिये अहर्निश चिन्ता करता रहता था परन्तु वह उदायी राजा को मारने में अशक्त था, अतः कही स्थान नहीं मिलने से वह उज्जैन में जाकर वहां के राजा की सेवा करने लगा। एक
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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